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आस्था नहीं डोलती, क्योंकि वह जानता है कि तीव्र कषाय में बंधे हुए कर्मों की स्थिति व अबाधाकाल इतना लम्बा होता है कि सामान्यत: यह अनुमान लगाना भी कठिन है कि यह अमुक कर्म का फल है।
अनुभाग बंध– रस, अनुभाग, अनुभाव, फल-ये सब एकार्थक हैं।2 जीव के साथ बंधने से पूर्व कर्मपुद्गल एकरूप एवं नीरस होते हैं, उनमें फलदान की शक्ति नहीं होती। जीव के द्वारा गृहीत होने से उनमें राग-द्वेषमय आत्मपरिणामों से रस का आपादन होता है। बाहर पड़े सूखे घास में दूध रूप में परिणत होने की शक्ति नहीं होती पर गाय, बकरी आदि के द्वारा खाये जाने पर वे दूध रूप में परिणत हो जाते हैं और तदनुसार उनमें कम या अधिक चिकनाई भी आ जाती है उसी प्रकार लोकाकाश में फैले कार्मण स्कंधों में रस नहीं होता, जीव के साथ संश्लिष्ट होने पर उस प्रकार का परिणमन होता है।
कषाय के असंख्य प्रकार हो सकते हैं, अत: अनुभाग भी असंख्य प्रकार का हो सकता है। पर संक्षेप में उनका समावेश चार प्रकारों - एकस्थानिक, द्विस्थानिक, विस्थानिक और चतु:स्थानिक में हो जाता है, जैसे कषाय का समावेश अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी
और संज्वलन-इन चार प्रकारों में हो जाता है। कर्मग्रंथ3 (5/65), पंचसंग्रह4 (गा. 150) नन्दीसत्र की मलयगिरीया वृत्ति (पत्र) आदि में इन्हें क्वाथ के उदाहरण से समझाया गया है। नीम का ईख के स्वाभाविक रूप से उपलब्ध रस की कटुता और मधुरता को एकस्थानिक रस से उपमित किया जाता है। उसे ओटाकर क्वाथ बनाया जाए और वह आधा शेष बचे तो उसकी कटुता या मधुरता दुगुनी हो जाती है, वह द्विस्थानिक बंध के समान होता है। उसका एक तिहाई भाग शेष रहे तो उसकी रस-शक्ति तीव्रतम हो जाती है, इसे त्रिस्थानिक बंध से उपमित किया जाता है। ओटाने पर यदि एक चौथाई भाग ही क्वाथ में रूप में प्राप्त हो तो वह चतु:स्थानिक बंध के समान अत्यधिक तीव्र रस वाला हो जाता है।
तीव्रता के समान मन्दता के भी मुख्यत: चार प्रकार किए जा सकते हैं। रस में अल्पतम, अल्पतर, अल्प और अनल्प पानी मिलाने से वह क्रमशः मन्द, मन्दतर और अत्यधिक मन्द रस हो जाता है। किस कषाय के कारण शुभ और अशुभ प्रकृतियों के किस प्रकार के रस वाला बंध होता है, इसे निम्नोक्त तालिका के द्वारा समझा जा सकता है-- कषाय शुभ कर्मबंध
अशुभ कर्मबंध अनन्तानुबन्धी अबन्ध
चतु:स्थानिक अप्रत्याख्यानी द्विस्थानिक
त्रिस्थानिक प्रत्याख्यानी त्रिस्थानिक
द्विस्थानिक संज्वलन चतुःस्थानिक
एकस्थानिक उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि शुभ कर्म प्रकृतियों का एकस्थानिक बंध नहीं होता। पुण्य और पाप-इन दो भेदों का मूल आधार अनुभाग बंध है क्योंकि जिनका अनुभाग नीम, कंजीर आदि के समान कटुक व अमनोज्ञ होता है, पाप कहलाते हैं तथा मधुर एवं मनोज्ञ तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2002 -
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