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सिरं (शिरः)
मानव जीवन के आध्यात्मिक लक्ष्य प्राप्ति की व्यंजना इस प्रतीक के माध्यम से की है, जो व्यक्ति को जातिपथ, जन्ममरण के चक्कर से मुक्त कर शाश्वत स्थान पर प्रतिष्ठित करती है
तहेवुग्गं तवं किच्चा अव्वक्खित्तेण चेयसा।
महाबलो रायरिसी अदाय सिरसा सिरं ।। 26 इसी प्रकार अनाकुल चित्त से उग्र तपस्या कर राजर्षि महाबल ने अपना शिर देकर शिर/मोक्ष को प्राप्त किया।
कवि का वर्ण्य-विषय यहां शिर नहीं, वह तो अप्रस्तुत है। प्रस्तुत है-वह उच्चतम स्थान जिसे प्राप्त कर व्यक्ति शाश्वत आनंद में रमण करने लगता है।
शरीर में सबसे ऊंचा स्थान शिर का है तथा लोक में सबसे ऊंचा मोक्ष, अपवर्ग है। इस समानता के कारण शिर स्थानीय मोक्ष को 'सिर' कहा है।
'सिरसा' शब्द भी जीवन निरपेक्षता का प्रतीक है। सिर दिए बिना अर्थात् जीवन निरपेक्ष हुए बिना साध्य की उपलब्धि नहीं होती। 'सिरसा' शब्द में 'इष्टं साधयामि पातयामि वा शरीरम्' की प्रतिध्वनि है। कावोया (कापोती)
भिक्षु षट्जीवनिकाय का रक्षक होने से स्वयं भोजन नहीं बनाता। गृहस्थ के द्वारा स्वयं के लिए बनाये हुए भोजन में से उसका कुछ अंश लेकर अपना जीवन निर्वाह करता है। जैन साहित्य में भिक्षुओं के भिक्षा का नामकरण पशु-पक्षियों के नामों के आधार पर किए गए हैं। यथा-माधुकरीवृत्ति, कापोतीवृत्ति, अजगरीवृत्ति आदि। प्रस्तुत प्रसंग में कापोतिवृत्ति भिक्षु की भिक्षावृत्ति का प्रतीक है
कावोया जा इमा वित्ती केसलोओ य दारुणो।
दुक्खं बंभवयं घोरं धारेउं अ महप्पणो ।।28 यह जो कापोती-वृत्ति (कबूतर के समान दोष-भीरु वृत्ति), दारुण केश-लोच और घोर-ब्रह्मचर्य को धारण करना है, वह महान् आत्माओं के लिए भी दुष्कर है।
यह प्रतीक दोष-भीरु वृत्ति का संवाहक बनकर आया है। वृत्तिकार ने कापोतीवृत्ति का अर्थ किया है-कबूतर की तरह आजीविका का निर्वहन करने वाला। जिस प्रकार कापोत धान्यकण आदि को चुगते समय नित्य सशंक रहता है, उसी प्रकार भिक्षाचर्या में प्रवृत्त मुनि एषणा आदि दोषों के प्रति सशंक होता है।" किंपागफलाणं (किम्पाकफलानां)
भोगों की विरसता के निदर्शन के लिए 'किंपाकफल' को प्रतीक बनाया गया हैजहा किंपागफलाणं परिणामो न सुंदरो। एवं भुत्ताणं भोगाणं परिणामो न सुंदरो ।। 48
- तुलसी प्रज्ञा अंक 118
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