Book Title: Tulsi Prajna 2002 10
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 29
________________ नरक में बादर अग्नि नहीं होती। वहां के कुछ स्थानों के पुदगल स्वत: उष्ण होते हैं । वे भट्टी की आग से भी अधिक ताप वाले होते हैं। वे अचित्त अग्निकाय के पुद्गल हैं। हमारी अग्नि से उस अग्नि की तुलना नहीं की जा सकती, क्योंकि वहां अग्नि का ताप महानगरदाह की अग्नि से उत्पन्न ताप से बहुत तीव्र होता है । पैंतीसवें तथा अड़तीसवें श्लोक में भी बिना काठ की अग्नि का उल्लेख है । उसकी उत्पत्ति वैक्रिय से होती है । यह अचित्त अग्नि है । केंसि च बंधित्तु गले सिलाओ, उदगंसि बोलेंति महालयंसि । कलंबुयावालुयमुम्मुरे य, लोलेंति पच्वंति य तत्थ अण्णे || (सूयगडो 5/1/10) कुछ परमाधार्मिक देव किन्हीं के गले में शिला बांधकर उन्हें अथाह पानी में डुबो देते हैं। (वहां से निकालकर ) तुषाग्नि की भांति ( वैतरणी के) तीर की तपी हुई बालुका में उन्हें लोटपोट करते हैं और भूनते हैं । असूरियं णाम महाभितावं, अंधं तमं दुप्पतरं महंतं । उड्डुं अहे यं तिरियं दिसासु, समाहिओ जत्थगणी झियाइ || (सूगडो 5/1/11 ) सूर्य नाम का महान् संतापकारी एक नरकावास है। वहां घोर अन्धकार है । जिसका पार पाना कठिन हो, इतना विशाल है। वहां ऊंची, नीची और तिरछी दिशाओं में निरंतर आग जलती है । अगणी-आग 26 तत्थ कालोभासी अचेयणो अगणिक्कायो । (चूर्णि, पृ. 129 ) चूर्णिकार ने इसका अर्थ काली आभा वाला अनिकाय किया है। वह अचेतन होता है। जंसी गुहा जलविट्टे, अविजाणओ डज्झइ लुत्तपण्णो । सया य कलुणं पुण घम्मठाणं, गाढोवणीयं अइदुक्खधम्मं । (सूयगडो 5/1/12) उसकी गुफा में नारकीय जीव ढ़केला जाता है । वह प्रज्ञाशून्य नैरयिक निर्गमद्वार को नहीं जानता हुआ उस अग्नि में जलने लग जाता है। नैरयिकों के रहने का वह स्थान सदा तापमय और करुणा उत्पन्न करने वाला है । वह कर्म के द्वारा प्राप्त और अत्यन्त दुःखमय है । चत्तारि अगणीओ समारभेत्ता, जहि कूरकम्मा भितवेंत बालं । ते तत्थ चिट्टंतऽभितप्पमाणा, मच्छा व जीवंतु व जोइपत्ता || (सूयगडो 5/1/13) क्रूरकर्मा नरकपाल नरकावास में चारों दिशाओं में अग्नि जलाकर इन अज्ञानी नारकों को पाते हैं। वे ताप सहते हुए वहां पड़े रहते हैं, जैसे अग्नि के समीप ले जाई गई जीवित मछलियां । अयं व तत्तं जलियं सजोइं, तओवमं भूमिमणुक्कमंता । ते डज्झमाणा कलुणं थणंति, उसुचोइया तत्तजुगेसु जुत्ता || (सूयगडो 5/2/4) Jain Education International For Private & Personal Use Only प्रज्ञा अंक 118 www.jainelibrary.org

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