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योन भरति सव्वदा निच्चं आतापि उत्सको। सब्बकामहरं पोसं भच्चार नातिमन्नति ।। न सापि सोत्थि भत्तारं इच्छाचरिन रोसये। भत्तु च गरुनो सब्बे परिपूजते पण्डिता॥ उट्ठाहिका अललसा संगहीत परिजना। भत्तु मनापा चरति सम्भतं अनुरक्खति ॥
या एवं वत्तती नारी भत्तु छनदवसानुगा। मनापा नाम ते देवा यति सा उपजति । सामाजिक सेवा के मापदण्ड :
___ बौद्ध ग्रन्थों में सामाजिक सेवा के अनेक प्रसंग प्राप्त हैं। भगवान बुद्ध ने सेवा करने के कतिपय सूत्र दिए हैं जिनकी आज भी उतनी ही प्रासंगिकता है, जितनी उस युग में थी। अगुत्तरनिकाय में तथागत ने कहा है कि उपासक का कर्त्तव्य है कि वह माता-पिता, आचार्य, पत्नी, मित्र, सेवक तथा साधु की सेवा करे। माता-पिता ने हमारा भरण-पोषण किया, काम किया, कुल परम्परा बनाये रखी, दायजय (विरासत) दी, श्राद्ध दान दिया, यह सोचकर उपासक उक्त सभी कार्य माता-पिता के प्रति करे, क्योंकि माता-पिता को पाप से निवारित करते हैं, पुण्य पथ पर आरूढ़ करते हैं, शिल्प शिक्षण देते हैं, योग्य विवाह सम्बन्ध करते हैं, दायज निष्पादन करते हैं।
आचार्य की सेवा के सन्दर्भ में उत्थान (तत्परता), उपस्थान (उपस्थिति) शुश्रूषा, परिचर्या व सत्कारपूर्वक शिल्प प्रशिक्षण अधिक महत्त्वपूर्ण है। आचार्य शिष्य को विनीत बनाता, सुन्दर शिक्षा देता, सभी प्रकार के शिल्प सिखाता, मित्र का सुप्रतिपादन करता व दिशा की सुरक्षा करता।
पत्नी की सेवा उसके सम्मान से, अपमान न करने से, मिथ्याचार न करने से, ऐश्वर्य प्रदान करने से तथा अलंकार प्रदान करने से करनी चाहिए, क्योंकि भार्या द्वारा कर्मान्त भले प्रकार के होते हैं, परिजन वश में रहते हैं, वह स्वयं अनाचारिणी नहीं होती, अर्जित सम्पत्ति आदि की रक्षा करती है तथा सभी कामों में निरालस और दक्ष होती है।
मित्रों की सेवा दान, प्रिय वचन, अर्थचर्या, समानता तथा विश्वास प्रदान करने से होनी चाहिए, क्योंकि वे मित्र प्रमाद कर देने पर रक्षा कर देते हैं, भय के समय शरण देने वाले होते हैं, प्रमत्त की सम्पत्ति की रक्षा करते हैं, आपत्काल में नहीं छोड़ते तथा दूसरे लोग भी ऐसे मित्र का सम्मान करते हैं।
सेवक की सेवा करके उसके बल के अनुसार कार्य देने से, भोजन वेतन प्रदान करने से, भोगी-शुश्रूषा से, उत्तम संरक्षक पदार्थ देने से और समय पर अवकाश (वोसग्ग) देने से करनी चाहिए, क्योंकि सेवक स्वामी से पूर्व बिस्तर से उठ जाने वाले होते हैं, प्रदत्त वस्तु को ही ग्रहण करने वाले होते हैं, सुव्यवस्थित कार्य करने वाले होते हैं तथा कीर्ति को फैलाने वाले होते हैं।
साधु-ब्राह्मण की सेवा मैत्री भावयुक्त कायिक, वाचिक व मानसिक कर्म से, उनके लिए द्वार खुला रखने से, खाद्य वस्तु करने से होनी चाहिए। ये श्रमण-ब्राह्मण गृहस्थों को पाप कार्यों से दूर रखते हैं, कल्याण का पथ दिखाते हैं, कल्याण प्रदान करते हैं, विद्यादान देते हैं तथा स्वर्ग का पथ-दर्शन कराते हैं। 36 ।
- तुलसी प्रज्ञा अंक 118
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