Book Title: Tulsi Prajna 2002 10
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 34
________________ बौद्ध ग्रन्थों के अनुशीलन से यह ज्ञात होता है कि नैतिक विकास के लिए शील, समाधि और प्रज्ञा ये तीन मुख्य साधन हैं । अष्टांगिक मार्ग इसी साधनात्रय का विकसित रूप है। बौद्धधर्म में आचार और पुरुषार्थ की प्रधानता है। बुद्ध ने भिक्षुओं से कहा-उद्योग तुम्हें करना होगा। उपदेश के श्रवणमात्र से दुःखनिरोध कथमपि नहीं होगा। उसके लिए आवश्यक है उद्योग करना। तथागत का कार्य तो केवल उपदेश देना है। उस पर चलना भिक्षुओं का कार्य है। सामाजिक उत्थान के लिए यह व्यक्ति-स्वातन्त्र्य और पुरुषार्थ का मूल्य विशेष महत्व का है। अहिंसक आजीविका : तथागत बुद्ध द्वारा उपदिष्ट मार्ग'मध्यममार्ग' या 'मध्यमा प्रतिपदा' कहलाता है, क्योंकि यह सैद्धान्तिक और व्यावहारिक दोनों दृष्टियों से दोनों अन्तों का परिहार करता है। यह समन्वय का सूत्र है। मध्यममार्ग के सभी आठ अंग व्यक्ति और समाज के विकास में सहायक हैं, किन्तु उनमें सम्यक् आजीव आज के समाज के लिए नितान्त आवश्यक बन गया है। आर्य श्रावक मिथ्या आजीव (झूठी जीविका) को छोड़कर सम्यक् आजीव से जीविका चलाता है। बिना जीविका के जीवन धारण करना कठिन है। मानव मात्र को शरीर-रक्षण के लिए कोई-न-कोई जीविका ग्रहण करनी ही पड़ती है। परन्तु यह जीविका अच्छी होनी चाहिए, जिससे दूसरे प्राणियों को न तो किसी प्रकार का क्लेश पहुँचे और न उनकी हिंसा का अवसर आए। भगवान् बुद्ध ने उस समय की इन पाँच जीविकाओं को हिंसाप्रधान होने से अनुमोदित नहीं किया - 1. हथियार का व्यापार, 2. प्राणियों का व्यापार, 3. मांस का व्यापार, 4. शराब का रोजगार और 5. विष का व्यापार। इस प्रकार के अन्य हिंसा प्रमुख उद्योगों अथवा साधनों के माध्यम से जीविकोपार्जन करना हीन माना गया है। इनसे अलग होकर ऐसे कार्यों द्वारा जीविका उपार्जन करना जिससे किसी की हानि न हो, सम्यक् आजीविका है। जीविकोपार्जन के साधनों में सर्वत्र निर्दोष ढंग को ही श्रेष्ठ बताया गया है। धम्मपद से प्रकट है कि जिस प्रकार भ्रमर विभिन्न पुष्पों पर जाकर उनसे रस लेकर अपनी जीविका चलाता है उसी प्रकार भिक्षु गाँवों में विचरण करते हुए बिना किसी पर भार स्वरूप बने जीविकोपार्जन करे यथापि भमरो पुष्पं वण्णगन्धं अहेठयं। फलेति रसमादाय एवं गाने मुनी चरे॥ -धम्मपद, 49 बौद्ध उपासक का प्रमुख कर्तव्य यह है कि वह निम्नलिखित चार प्रकार के पाप कर्मों से विमुख रहे 1. पाणातिपात (हिंसा करना)। 2. अदिन्नादान (चोरी करना)। 3. कामेसु मिच्छाचार (स्त्री सम्बन्धी दुराचार करना)। 4.मुसावाद (असत्य बोलना)।' तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2002 - - 31 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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