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३. एक आदर्श समाज की व्यवस्था होनी ३. समाज व्यवस्था कितनी भी आदर्श हो, चाहिए।
उसमें देश व काल के अनुसार परिवर्तन
अपेक्षित रहता है। ४. जैन परम्परा में सामाजिक व आर्थिक ४. प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने राजपद पर तन्त्र का चिन्तन नहीं है।
रहते समय असि, मसि और कृषि की व्यवस्था द्वारा सामाजिक तथा आर्थिक
तन्त्र की चिन्ता की थी। ५. पूंजीवादी व्यवस्था में पूर्ण स्वतन्त्रता है। ५. इच्छा पर अंकुश लगाए बिना स्वतन्त्रता
स्वछन्दता बन जाती है। ६. सब कार्य पैसे से सिद्ध हो जाते हैं। ६. पैसा यदि साधन न रहकर साध्य बन
जाए तो वह मनुष्य को दीन-हीन बना
देता है। ७. पैसे पर यदि राज्य का अधिकार होगा ७. राज्य सत्ता भी अत्याचार कर सकती है।
तो शोषण नहीं होगा। ८. वर्णाश्रम व्यवस्था सर्वोत्तम है। ८. वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत ऊंच-नीच के
भेदभाव ने मुनष्य को अपमानित किया है। ९. उत्पादन का प्रयोजन लाभ कमाना है। ९. उत्पादन मनुष्य के हित को केन्द्र में रखकर
होना चाहिए। १०. शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को नौकरी १०. शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को सुसंस्कृत दिलाना है।
बनाना है। ११. अभाव पीड़ा का कारण है। ११. केवल अभाव ही नहीं, अक्षमता भी पीड़ा
का कारण है। १२. अभाव दु:ख का कारण है। १२. अभाव ही नहीं, अतिभाव भी दुःख का
कारण है। १३. परिग्रह जितना अधिक हो, उतना अच्छा। १३. परिग्रह व त्याग के बीच सन्तुलन होना
चाहिए। १४. समाजवादी व्यवस्था सर्वोपकारी है। १४. समाजवादी राष्ट्र भी घातक शस्त्रों की
होड़ में किसी से पीछे नहीं रहे। १५. विकास का अर्थ है-पूरे विश्व में उत्पन्न १५. स्वदेशी और स्वावलम्बन राष्ट्रीय स्तर
होने वाले उत्तम पदार्थों का संग्रह व भाग। पर शोषण को रोकने का उपाय है। १६. परिग्रह सम्मान का कारण है। १६. सम्मान का कारण है-चरित्र ।
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तुलसी प्रज्ञा अंक 118
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