Book Title: Tulsi Prajna 2002 10 Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya Publisher: Jain Vishva Bharati View full book textPage 9
________________ समाप्त हो जाती है। ऐसी स्थिति में न हमें दूसरों के सद्भाव का लाभ मिलता है, न आशीर्वाद का। २१. जो जितना स्थूल है वह उतना शक्तिशाली २१. जो जितना सूक्ष्म है वह उतना अधिक शक्तिशाली है। २२. चेतन और जड़ एक दूसरे को प्रभावित २२. चेतन और जड़ एक दूसरे से प्रभावित नहीं करते। होते हैं। २३. पौष्टिक भोजन से शरीर पुष्ट होता है। २३. केवल भोजन ही हमारे शरीर को नहीं बनाता। हमारे शरीर के निर्माण में वह मन:स्थिति भी महत्त्वपूर्ण योगदान देती है, जिस मन:स्थिति से हम भोजन करते हैं। २४. एक-सी परिस्थिति में सबको एक-सा २४. एक-सी परिस्थिति होने पर भी सबके ही अनुभव होगा। अनुभव भिन्न-भिन्न होते हैं। २५. परिस्थिति की अनुकूलता और प्रति- २५. निषेधात्मक दृष्टिकोण अनुकूल को भी कूलता निश्चित है। प्रतिकूल बना देता है। विधेयात्मक दृष्टिकोण प्रतिकूल को भी अनुकूल बना देता है। २६. हम छोटे-बड़े गरीब-अमीर हैं। २६. हम अपने शुद्ध रूप में न छोटे हैं, न बड़े। २७. हमें कोई अन्य व्यक्ति सत्य का दर्शन २७. अपना सत्य स्वयं खोजना पड़ता है। करा देगा। २८. हम विचार करके सत्य को जान लेंगे। २८. सत्य वहाँ नहीं है जहाँ विचार ले जाता है। सत्य उस निर्विचारता में है जिस निर्विचारता में से विचार उत्पन्न होता है। २९. पदार्थ को बदलने के लिए कुछ क्रिया २९. क्रिया ऊपरी परिवर्तन ला सकती है। करनी पड़ती है। केवल देखने-जानने से आन्तरिक परिवर्तन देखने-जानने से ही कोई परिवर्तन नहीं आता। आता है। ३०. संस्कार मन में रहते हैं, शरीर में नहीं। ३०. शरीर भी संस्कारों का वाहक है। 6 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 118 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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