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चौथा भव-धनसेठ
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इस तरह कीड़ा करते बहुतसा समय बीत गया। पीछे ललितांगदेवको अपने च्यवनके चिह्न दिखाई देने लगे । स्वामीका वियोग निकट समझकर उसके रत्नाभरण निस्तेज होने लगे, मुकुटकी मालाएँ म्लान होने लगी और उसके अंगवस्त्र मलिन होने लगे। कहा है"आसन्ने व्यसने लक्ष्म्या लक्ष्मीनाथोऽपि मुच्यते ।"
जब दःख नजदीक आता है तब लक्ष्मी विष्णको भी छोड़ जाती है ] उस समय उसके मनमें धर्मका अनादर, भोगकी विशेष लालसा उत्पन्न हुई। जब अंतसमय पाता है तब प्राणियों की प्रकृतिमें परिवर्तन होही जाता है। उसके परिवारके मुखसे अपशकुनमय-शोककारक और नीरस वचन निकलने लगे। कहा है"माविकार्यानुसारेण, वागुच्छलति जल्पताम् ।"
[बोलनेवालेकी जवानसे, होनहारके अनुसारही. वचन निकलते हैं।] जन्मसे प्राम हुई लक्ष्मी और लज्जास्पी प्रियाने उसे इसी तरह छोड़ दिया जैसे लोग किसी अपराधीका त्याग करदेते हैं। चीटेके जैसे मौतके समयही पंख पाते हैं वैसेही वह अदीन और निद्रारहित था, तो भी अंतसमय निकट श्रानेसे वह दीन और निद्राधीन हुश्रा। हदयके साथ उसके सैधिवंध शिथिल होने लगे। महाबलवान पुरुप भी जिनको नहीं हिला सकते थे ऐसे उसके कल्पवृक्ष कौंपने लगे। उसके नीरोग अंगोपांगको संधियों भविष्य में आनेवाले दुःम्बकी शंकासे भग्न (शिथिल होने लगी । दमरका स्थायीभाव देखने में