Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Author(s): Krushnalal Varma
Publisher: Godiji Jain Temple Mumbai

View full book text
Previous | Next

Page 793
________________ ... . . . श्री अजितनाथ-चरित्र . [७६६ नामक इंद्रके चरणकमलोंमें मैं प्रणाम करता हूँ।" अपने सिंहा. सनपर बैठे हुए राजाने आश्चर्यके साथ ब्राह्मणसे पूछा, "यह क्या है ?? तब ब्राह्मणने जवाब दिया, "पहले आपको सभी कलाओंके जानकार और गुणग्राही समझकर मैं आपके पास भाया था, उस समय आपने मेरा यह कहकर तिरस्कार किया था कि इंद्रजाल मतिको भ्रष्ट करता है । इसीलिए उस समय आपने मुझे धन देना चाहा था, तो भी मैंने नहीं लिया और मैं चला गया था। गुणवानको गुण प्राप्त करनेमें जो श्रम होता है वह बहुतसा धन मिलनेसे सार्थक नहीं होता। गुणीके गुणकी जानकारीसेहीवह सार्थक होता है। इसीलिए आज मैंने, कपटसे ज्योतिषी बनकर भी, आपको अपनी इंद्रजाल-विद्या बताई है। आप प्रसन्न हूजिए ! मैंने आपके सभासदोंका तिरस्कार किया और बहुत समय तक आपको मोहमें फंसा रखा, उसकी उपेक्षा कीजिए। कारण,-तत्त्वदृष्टिसे तो इसमें मेरा कोई अपराध नहीं है।" (३६६-३७३) , यों कहकर वह इंद्रजालिक मौन रहा। तब परमार्थका जानकार राजा अमृतके समान मधुर वाणीमें बोला,"हे विप्र! तूंने राजाका और राजाके सभासदोंका तिरस्कार किया है। इस बातका अपने मनमें कुछ डर न रखना। कारण,-तू तो मेरा महान उपकार करनेवाला हुआ है । हे विप्र! तूने मुझे इंद्रजाल दिखाकर यह बता दिया है, कि यह संसार इंद्रजालके समानही असार है। जैसे तूने जल प्रकट किया था और वह देखतेही देखते नष्ट हो चुका था वैसेही, इस संसारके सारे पदार्थ भी प्रकट ४६ .

Loading...

Page Navigation
1 ... 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842 843 844 845 846 847 848 849 850 851 852 853 854 855 856 857 858 859 860 861 862 863 864 865