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त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र
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१७. साधुके लिए वना आहार लेना, १८-ौदेशिक (अमुक मुनिके लिए वना आहार लेना), १६-पूतिकर्म (सदोष अन्नमें मिला निर्दोष अन्न लेना), २०-मिश्र आहार (साधु तथा गृहस्थ के लिए बना आहार लेना), २१-स्थापना (साधुके लिए रखा हुआ आहार लेना), २२-प्राभृतिक (साधुके निमित्तसे, समयसे पहले या बादमें, बनाया हुआ आहार लेना), २३-प्रकाशकरण (अँधेरेमें से उजेलेमें लाना), २४-क्रीत (खरीदा हुआ आहार लेना), २५-उद्यतक ( उधार लाया हुआ आहार लेना), २६परिवर्तित (बदलेमें आया हुआ आहार लेना), २७-अभ्याहृत -(सामने लाया हुआ आहार लेना), २८-पदभिन्न (मुहर तोड़कर निकाला हुआ आहार लेना), २६-मालापहृत (ऊपरसे लाकर दिया हुआ आहार लेना), ३०-अछेद्म (जबरदस्ती दूसरेसे छीनकर लाया हुआ आहार लेना), ३१-अनिसृष्ट ( अनेक आदमियोंके लिए बनी हुई रसोईमें से दूसरोंकी आज्ञा लिए बगैर एक आदमी आहार दे वह लेना), ३२-अध्यवपूर्वक (साधुको आते जानकर गृहस्थका उनके लिए अधिक भोजन बनाना और साधुका उसे ग्रहण करना) : [ये १७ से ३२ तकके दोष गृहस्थकी तरफसे होते हैं। इनको उद्गम दोष कहते हैं।] .. ३३-शंकित (अशुद्ध होनेकी शंका होने पर भी आहार लेना), ३४-मृक्षित (अशुद्ध वस्तु लगे हुए हाथसे आहार लेना), ३५.निक्षिप्त (सचित्त वस्तुमें गिरी हुई अचित्त वस्तु निकालकर रखी हो वह लेना), ३६-पिहित (सचित्त वस्तुसे ढकी हुई अचित्त वस्तु लेना), ३७-सहन (एकसे दूसरे बर्तनमें डालकर