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७६० ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्र: पर्य २. सर्ग ६.
पकड़ने के लिए सरोवर मुखाना है, लकड़ी के लिए आम्रवन जाता है, मुही भर चुन लिए चंद्रकांतमगि जलाता है, घावपर पट्टी बाँधने के लिए देवदूष्य वख फाड़ता है और खीलीके लिए बढ़ा देवालय तोड़ता है, वैसेही म्फटिकके समान शुद्ध और 'परमार्थ प्राप्त करनेकी योग्यनावाले अपने श्रात्माको तुमने अपविद्या प्राप्त करने में मलिन बनाया है। संनिपातके रोगीकी तरह तुम्हारी इम अपविद्याको देखनेवालेकी बुद्धि भी भ्रष्ट हो जाती है। तुम याचक हो इमलिए इच्छानुसार धन माँग लो। हमारे कुलमें किसीकी (योग्य) श्राशाका भंग नहीं किया जाता।"
(२५८-२६४) इस तरह राजाकी कठोर बातें सुनकर सदाका मानी पुरुष अपने क्रोधको छिपाता हुया बोला, "क्या मैं अंधा हूँ ? बहरा हूँ ? लूला हूँ ? लँगड़ा हूँ १ नपुंसक हूँ ? या और किसी तरहसे दयापात्र हूँ कि जिससे में अपने गुण बताए बगैर ही, अचः रजमें डाले वगैरही,कल्पवृक्षके समान आपसे दान ग्रहण करूँ ?, श्रापको मेरा नमस्कार है। मैं यहाँसे कहीं दूसरी जगह जाऊँ गा।" यों कहकर वह खड़ा हुआ । 'मुझपर कृपणताका दोष आएगा' इस मयसे राजाने उसे श्रादमी भेजकर ठहरनेको कहा, मगर वह न ठहरा । सभागृहसे निकल गया। सेवकोंने रासाकी शरम यह कहकर मिटाई कि स्वामीने द्रव्य देना चाहा था तो भी उसने क्रोधके मारे नहीं लिया। इसमें स्वामीकां क्या दोष है ? (२६५-२७०) . वही पुरुष एक बार फिर ब्राक्षणका वेष धारण कर हाथमें भेट ले राजाके द्वारपर. या खड़ा था। द्वारपालने रानाको