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२१८ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व १. सर्ग ३.
द्रमें, नौका रूपी घोड़ोंपर सवार होकर, डाँडों रूपी चावुकोंसे उन्हें चलाते हुए जगत्पति को देखने आ रहे थे। कई देवता मूर्तिमान पवन हों ऐसे वेगवाले रथोंपर सवार होकर नाभिनंदनको देखने के लिए प्रारहे थे; मानों उन्होंने वाहनोंकी क्रीडाकी (गतिकी)शर्त लगाई हो इस तरह वे मित्रको भी राह नहीं देखते थे। अपने गाँव पहुंचे हुए मुसाफिरकी तरह प्रभुके पास पहुँचनेपर थे स्वामी हैं ! ये स्वामी है !' कहते हुए वे अपने वाहनोंकी गतिको रोकते थे। विमान रूपी हवेलियोंसे और हाथियों, घोड़ों और रथोंसे ऐसा मालूम होता था कि मानों अनेक देवताओं और मनुष्यों से घिरे हुए जगत्पति, अनेक सूर्यों और चंद्रमाओंसे घिरे हुए, मानुपोत्तर पर्वतके समान मालूम होते थे। उनके दोनों तरफ भरत और बाहुबलि सेवा करते थे। इससे प्रभु ऐसे शोभते थे जैसे दोनों किनारोंसे समुद्र शोभता है । हाथी जैसे अपने यूथपति (दलके सरदार ) का अनुसरण करते हैं वैसेही दूसरे अट्ठानवै विनीत पुत्र प्रभुके पीछे चलते थे । माता मरुदेवी, पनियाँ सुमंगला और सुनंदा,पुत्रियाँ ब्राह्मी व सुंदरी तथा दूसरी स्त्रियाँ, ओसकी बूंदोंवाली कमलिनियोंकी तरह आँसूभरी आँखों के साथ प्रभुके पीछे चल रही थीं। इस तरह प्रभु सिद्धार्थ नामके उद्यानमें पधारे। वह उद्यान प्रभुके पूर्वजन्मके सर्वार्थसिद्ध विमानसा मालूम होता था। वहाँ प्रभु शिविकारत्नसे अशोक वृक्षके नीचे उतरे, जैसे ममतारहित मनुष्य संसारसे उतरता है (संसार ‘छोड़ता है); और कपायकी तरह उन्होंने वस्त्रों, आभूषणों और 'मालाओंको तत्कालही छोड़ दिया। उस समय इंद्रने पास आकर
चंद्रकी किरणोंसेही बना हो ऐसा उजला और बारीक देवदुष्य • वर प्रभुके कंधेपर आरोपण किया (रखा)। (५०-६४) ..