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७३८] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व २. वर्ग ६.
जुदा प्रकारके ऐसे विलाप होने लगे जैसे आकाशमें टिटिहरीके होते हैं। "हे देव ! हमारे प्राणेशके प्राण लेकर और हमारे प्राणोंको यहाँ रखकर तूने यह अर्धदग्धपन कैसे किया ? हे पृथ्वीदेवी ! तुम फट जाओ और हमें जगह दो; कारण आकाशमेंसे गिरे हुओंका सहारा भी तुम्ही हो। हे देव ! चंदनगोहकी तरह आज तू हमपर अकस्मात निर्दय होकर बिजली गिरा। हे प्राणो ! तुम्हारे मार्ग सरल हों। तुम इच्छानुसार अब यहाँसे चले जाओ और इस शरीरको किराएकी झोंपड़ीकी तरह छोड़ दो। सर्व दुखोंको मिटानेवाली हे महानिद्रा ! तू आ । हे गंगा! तू उछलकर हमको जलमृत्यु दे। हे दावानल ! तू इस पर्वतके जंगलमें प्रकट हो कि जिससे तेरी मददके द्वारा हम पतिकी गतिको पाएँ। हे केशपाशो! तुम अव पुष्पोंकी मालाओंके साथकी मित्रता छोड़ दो। हे आँखो! तुम अव काजलको जलाजलि दो। हे कपोलो! तुम अब पत्ररेखाके साथ संबंध छोड़ दो। हे ओंठो ! अब तुम अलताकी संगतिकी श्रद्धा त्याग दो। हे कानो! तुम अब गाना सुनने की इच्छाको दूर करो, साथही रत्नकर्णिकाओंका भी त्याग करो। हे कंठो !अवकठियाँ पहननेकी उत्कंठा मत रखो। हे स्तनो! आजसे तुम्हें कमलोंके लिए जैसे श्रोसकी बूंदोंका हार होता है वैसेही, अश्रुविन्दुओंका हार धारण करना होगा। हे हृदय ! तुम तत्काल पके हुए फूटकी तरह दो भागोंमें बँट जाओ। हे भुजाओ! अब तुम कंकण और वाजूबंधोंके भारसे मुक्त हुए। हे नितंबो ! तुम भी प्रातःकालका चंद्रमा जैसे कांतिका त्याग करता है वैसेही कंदोरोंका त्याग करों। हे चरणो ! तुम अनाथकी तरह अव आभूषण मत