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२९२ ] त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्ष १. सर्ग ४.
है वैसे मंत्रीकी बात सुनकर और वाणपर अंकित अक्षरोंको देखकर मगधपति शांत हो गया। फिर वह वाण और भेट लेकर भरत राजाके पास आया और प्रणाम करके बोला, "हे पृथ्वीपति ! कमलिनीकी पर्वणी (पूर्णिमा) के चंद्रमाकी तरह भाग्यसे मुझे आपके दर्शन हुए हैं। भगवान ऋपभदेव जैसे प्रथम तीर्थकर होकर पृथ्वीपर विजय पा रहे हैं वैसेही आप भी पृथ्वी पर प्रथम चक्रवर्ती होकर विजयी हों। जैसे ऐरावण हाथीका कोई प्रतिहस्ति ( उसके समान दूसरा हाथी) नहीं होता, वायुके समान कोई बलवान नहीं होता और आकाशसे अधिक कोई माननीय नहीं होता वैसेही आपकी समता करनेवाला कोई नहीं हो सकता। कानों तक खिंचे हुए आपके धनुपसे निकले हुए बाणको कौन सह सकता है ? मुझ प्रमादीपर कृपा करके आपने मुझे अपना कर्तव्य बतानेके लिए छड़ीदारकी तरह यह बाण भेजा, इससे हे नृपशिरोमणि ! आजसे मैं आपकी आज्ञाको शिरोमणिकी तरह मस्तकपर धारण करूँगा। आपके द्वारा नियुक्त किया गया में, पूर्वदिशाके आपके जयस्तंभकी तरह, निष्कपट भक्तिसे इस मगधतीर्थमें रहूँगा। यह राज्य, यह सारा परिवार, मैं खुद और दूसरा लो कुछ भी है, वह सभी आपका है। आप मुझे अपना सेवक समझकर आज्ञा दीजिए।"
(१३६-१४८) ऐसा कहकर उसने वाण, मगधतीर्थका जल, मुकुट और दो कुंडल भेट किए। भरत राजाने उन वस्तुओंको स्वीकारकर मगधपतिका सत्कार किया। कहा है- ' ......"महातो हि सेवोपनतवत्सलाः।"