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४१२ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्र: पर्व १. सर्ग ५.
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असुरोंने जैसे पर्वतके नेत्र (मथानीमें लगाई जानेवाली रस्सी) के समान बने हुए सर्पको (शेषनागको ) खींचा था वैसेही, चक्रीके हाथमें बँधी हुई साँकलोंको पकड़कर सैनिक खींचने लगे। चक्रीकी भुजाके साथ बँधी हुए साँकलों को पकड़नेसे सैनिक ऐसे मालूम होते थे जैसे ऊँचे वृक्षकी शाखाओंपर बैठे हुए बंदर हो । पर्वतको भेदनेकी कोशिश करनेवाले हाथियोंकी (जैसे पर्वत उपेक्षा करता है उसी ) तरह अपनेको खींचनेवाले सैनिकोंकी चक्रीने थोड़ी देर उपेक्षा की। फिर उन्होंने अपने सामने किया हुया हाथ खींचकर छातीसे लगा लिया इससे सभी सैनिक इस तरह गिर पड़े जिस तरह पंक्ति में एक साथ बाँधे हुए घड़े (ग्विचनेसे) गिर पड़ते हैं। उस समय चक्रवर्तीका हाथ लटकते हुए सैनिकोंसे ऐसे शोभने लगा जैसे खजूरका पेड़ खजूरके फलोंसे शोभता है। अपने स्वामीके ऐसे बलको देखकर सैनिक आनंदित हुए और उन्होंने पहले जो कुशंका की थी उसे और उसीकी तरह भुजाकी साँकलोंको भी तुरंत खोल दिया। (५५७-५७०)
फिर गायन करनेवाला जिस स्वरमें गायन प्रारंभ करता है, उसी स्वरको पुन: पकड़ता है ऐसेही चक्रवर्ती हाथीपर सवार होकर रणभूमिमें पाया । गंगा और यमुनाके वीचमें जैसे वेदि. प्रदेश (दो आवा ) शोभता है वैसेही दोनों तरफकी सेनाओंके बीचकी भूमि शोभती थी। जगतका संहार रुक जानेसे जैसे किसीने प्रेरणा की हो ऐसे पवन पृथ्वीकी रजको धीरे धीरे दूर करने लगा। देवता समवसरणकी भूमिकी तरहही उस रणभूमिमें सुगंधित जलकी वृष्टिसे छिड़काव करने लगे और मांत्रिक