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५३२] त्रिषष्टि शनाका पुरुप चरित्र: पत्र २. सग २.
शापत्रक जिनवर और उनकी माताको नमस्कार कर, अपना परिचय , नोंक विद्युल गुणोंका गायन करती हुई, हाथों दीपिका ले, ईशान कानमें न्यही नहीं 1 (२१२-२१४)
न्त्रक पिकं मध्यमें रहनेवाली नपा, पांशिका, मुरूपा और यकायती नामकी चार अमारियाँ भी हरक पूर्वकी तरहही परिवार सहित बड़ विमानमें सवार होईन जन्मनगरमें आई। पहले चन्द्रनि विमानों सहित घरकी प्रददिशा दी व विमानोंको योग्य न्यानपरत्राफिर व पंदल चलकर जन्मगृहमें श्राई और भगवान तथा उनकी माताको, भक्तिसहित प्रदक्षिणापूर्वक प्रणाम करके, इस तरह कहने लगी-"विश्वको श्रानंद देनेवाली है जगन्माता ! श्रापकी जय हो ! श्राप चिरजीवी हो । श्राप दान धान हमारे अच्छा मुहूर्त हुआ है। रत्नाकर, नशेत श्रीर लामा-मत्र निरर्थक नामधारी है। गन्नमृमि तो श्राप पकड़ी । क्योंकि यापन (इन रत्नों अंट) पुत्ररत्नको जन्म दिया है। हम नत्रऋद्वीप मध्यमें रहने वानी विष्कुमारिला है, श्रहंत जन्मत्य करने लिए हम अहाँ पाई है. इसलिए श्राप हमसे जरा भी भयभीत न हो।"
याँ कहकर उन्होंने प्रमुचा नामिनाल चार अंगुल रखा और बाकी काट दिया। फिर उस कंटे वग नालको, भूमि बट्टा बोकर निधिनी नरह गया और रत्न नथा हीगने खई. को पर दिया । नकाल उत्पन्न हुई दुवाले उन नपर. पीठिका बाँध ली। देवनायांप्रमावसे नन्कालही वर्माचा भी बननादा है। फिर उन्द्रनि मुनिकागृहकी तीनों दिशानि, इमरम लबीके गृहन्म नीन ऋदलीगृह वार किए। उनसे हरेकके