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७३४ ] त्रिषष्टि शलाका पुरुष-चरित्रः पर्व ३. सर्ग ५.
मुनकर नागराज शांत हुश्रा । कहा है कि"..."सामवागंभः कोपाग्नेः शमनं सताम् ।"
[सत्पुरुषोंकी कोपाग्निको शांत करनेमें समतापूर्ण वाणी जलके समान होती है । "अब फिरसे ऐसा न करना" कहकर नागपति इसी तरह नागलोकमें चला गया जिस तरह सिंह गुफामें चला जाता है । (१५५-१५६)
नागराजके जानेके वाद जहने अपने छोटे भाइयोंसे कहा, हमने अष्टापदके चारों तरफ खाई तोबनाई पर पातालके समान गहरी खाई जलके बिना इसी तरह नहीं शोभती जिस तरह मनुष्यकी बड़ी आकृति भी बुद्धिके विना नहीं शोभती है। और यह फिर कभी वापिस मिट्टीसे भर भी सकती है। कारण कि काल पाकर बड़े बड़े खड्डे भी थलके समान हो जाते हैं इसलिए इस खाईको वहुत जलसे अवश्य भर देनी चाहिए । मगर यह काम ऊँची तरंगोंवाली गंगाके विना पूरा न हो सकेगा।" यह: सुनकर उसके भाइयोंने कहा, "आप कहते हैं वह ठीक है।" तव जत्ने मानो दूसरा यमदण्ड हो ऐसा दएडरत्न हाथमें लिया। उसने दण्डरत्नसे गंगाके किनारेको इसी तरह तोड़ दिया जैसे इंद्रवज्ञसे पर्वतके शिखरको तोड़ देता है। किनारेके टूटनेसे . गंगा उसी मार्गसे चली। कारण,....."नीयते यत्र तत्रांभोः गच्छत्यजुपुमानिव ।"
[सरल पुरुपोंकी तरह जल यहाँ ले जाया जाता है वहीं जाता है..] उस समम गंगा नदी अपनी उछलती हुई ऊँची ऊँची तरंगोंसे ऐसी मालम होती थी मानो इसने पर्वतोंके