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६७] त्रिषष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व २. सर्ग ३.
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की नरह लोगोंको कहते मुना कि तेरा पति विदेश चला गया है। वनरक और अर्थक नष्ट होनेसे और पति परदेश चन्ने जानसे अपने प्रापकोदलजमा मानती हई मुलक्षणा दलमें दिन विनाने लगी । वयाँ ऋतु आई और कोई विपुला' नामकी साध्वी उसके घरचातुर्मास रहने अभिप्रायसे आई । मुलक्षणाने साध्वीको रहने के लिए जगह दी और वह हमेशा उनके मुख से धर्मदेशना सुनने लगीजैसे नीठी चीजके संबंधसे लट्टी चीजका बट्टापन नाता रहता है सही, साध्वी धर्मोपदेशसे मुलनपाका मिथ्यात्व जाता रहा। कृष्णपक्षका उल्लंघन करके रात्रि से निर्मलताको प्राप्त होती है, वैसेही वह निर्मल सन्य
व पाई। वैद्य जैसे शरीरमें उत्पन्न होनेवान्ने रोगोंको जानता है वैसेही वह नीब-अजीव आदि पदायाँको यथास्थित जानने लगी जैसे समुद्र लायन लिए मुसाफिर योग्य जहाजमें सवार होता है. वैसही संमारसे पार लगाने में समर्थ जैनधर्मको उसने अंगीकार किया। उसे विषयों विरक्ति हो गई, उसकी कृपाएँ उपशांत हुई और अविच्छिन्न जन्म-मरणकी श्रेणीसे वह व्याकुल हो उठी। रसपूर्ण ऋयाले जागरूक मनुष्य जैसे रात बिताता है, वैसेही उसने मावीकी सेवा सुऋषा करते हुए वर्षाकाल बिनाया । उसको अणुन ग्रहण कराकर साध्वी विहार कर दूसरी जगह चली गई। कहा है. "क्षेत्रे प्रावृपऊवं न तिष्ठत्येकप्रसंयताः ।"
[संयमी साधु वाचनु समाप्त होने पर एक त्यानपर नहीं रहा । ] (८६१-८०)
शुदमदमी परदेशसे बहतसा धन कमाकर नियाके प्रेमसे