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श्री अजितनाथ-चरित्र
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सन्मार्ग पर चलने लगी जिस तरह अच्छे मारधीसे घोड़े मार्गपर सीधे चलते हैं। प्रारूपो मयूरीके लिए मेवके समान और उसका मनोरथ पूर्ण करनेके लिए कल्पवृक्ष के समान अजित महाराजके राज्य-शासनमें, चूर्ण अनाजका ही होता था, बंधन पशुओंके लिएही था, वेध मणिय मेंही होता था,ताड़न बाजोपर. ही होता था, संताप ( भट्टीमें डालकर तपाने का काम ) सोनेके लिए ही था, तेज(शाणपर चढ़ाना) शस्त्रही किए जाते थे, उत्खनन (खोदना)शाली धानकाही किया जाता था, वक्रता (टेढा. पन) त्रियोंकी भौंहोंमही थी, मार शब्दका उपयोग चौपड़ खेलते समय सारको पीटते वक्तही होता था, विदारण (काटना) खेतकाही होता था, कैद पक्षियोंको लकड़ीके पिंजरेमें बंद करनेके रूपमेंही थी, निग्रह (रोक-थाम ) रोगकाही होता था. जहदशा कमलोंके लिएही थी,दहन अगझकाही होता था, घर्पण (रगड़ना) श्रीखंड (चंदन) काही होता था, मंथन दहीकाही होता था, पेला गन्नाही जाता था, गधुपान भौरेही करतथे, मत्त हाथीही पनते थे, कलह स्नेहप्राप्ति के लिगही होता था, डर निशाहीकाथा, लोभ गुणों को संग्रह करनेहीका था और अक्षमा दोषोंके लिएड़ी धी। अभिमानी राजा भी अपने आपको एक प्यादेके समान सम अजित स्वामीकी सेवा करते थे। कारण,
"दासंति धन्यमणयः सर्वे चिंतामणेः पुरः।"
[अन्य सारी मरिणयों निंतामणिके पास दामीरूपमें ही रहती है। उन्होंने नीति नहीं पलाई थी। इतनाही ग्यों? उन्होंने कभी गौंह भी देदी नहीं की थी। इतना होते हुए भी सारी प्राइम तराइ उनके परामें थी जिस सरद भाग्यशाली