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भ० ऋषभनाथका वृत्तांत [४३ होता था मानो उनमेंसे यवनिकाएँ (परदे ) उत्पन्न हुई हैं। उनमें जलते हुए अगरके धूपके धूंएके समूह, उन पर्वतपर नई बनी हुई नीलचूलिकाका भ्रम कराते थे। (५८६-५६४)
पूर्वोक्त मध्य देवछंदके ऊपर शैलेशी ध्यान में रत हों ऐसी हरेक प्रभुके अपने अपने देहके प्रमाण जितनी,अपने अपने देहके वर्णवाली, मानो हरेक प्रभु आपही विराजमान हों ऐसी ऋषभस्वामी वगैरा चौबीस अहंतोंकी निर्मल रत्नमय प्रतिमाएँ बनवाकर स्थापन की गईं। उनमें सोलह प्रतिमाएँ रत्नकी, दो प्रतिमाएँ राजवर्त रत्नकी (श्याम ), दो स्फटिक रत्नकी (श्वेत), दो वैडूर्य मणिकी ( नीली) और दो शोणमणिकी (लाल ) थीं। उन सब प्रतिमाओंके रोहिताक्ष मणिके ( लाल ) आभासवाले अंकरत्नमय ( सफेद ) नख थे और नाभि, केशके मूल, जीभ, तालु, श्रीवत्स, स्तनभाग तथा हाथ-पैरोंके तलुए, ये स्वर्णके (लाल) थे; बरौनी (पलकोंके केश, ) आँख की पुतलियों, रोम, भौंहें और मस्तकके केश रीष्टरत्नमय (श्याम) थे। ओंठ प्रवालमय (लाल) थे, दाँत स्फटिक रत्नमय । सफेद ) थे, मस्तकका भाग यज्ञमय था और नासिका अंदरसे रोहिताश मणि (लाल) के प्रतिसेक (आभास) वाली-स्वर्णकी थी। प्रतिमाओंकी आँखें लोहिताक्ष मणिके प्रांतभागवाली और अकमणिसे बनी हुई थीं। इस तरह अनेक प्रकारकी मणियोंसे बनी हुई वे प्रतिमाएँ अत्यंत शोभती थीं। (५६५-६०२)
हरेक प्रतिमाके पोछे, यथायोग्य मानवाली (प्रमाणके अनुसार) छत्रधारिणी, रत्नमय एक एक पुनली थी। हरेक