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श्री अंजितनाथ-चरित्र
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. ३-काय गुप्तिः-(जब वे कायोत्सर्ग कर ध्यानमें खड़े होते थे तव ) महिष वगैरा पशु, कंधे या शरीरकी खुजली मिटानेके लिए मुनिको खंभा समझकर उनके शरीरसे अपने शरीरको घिसते थे तो भी वे कायोत्सर्गको छोड़ते न थे। आसन डालनेमें, उठाने में और संक्रमण (विहार करने) के स्थानोंमें चेष्टारहित .. होकर नियम करते.थे।
. इसतरह वे महामुनि चारित्ररूपी शरीरको उत्पन्न करने में, उसकी रक्षा करनेमें और शोधन करने में (दोष मिटानेमें) माताके समान पाँच समिति और तीन गुप्तिरूपी आठ प्रवचन-माताको धारण करते थे। (२६४-२७५)
. . बाईस परिसह
१-क्षुधा परिसहः-भूखसे पीड़ित होनेपर भी शक्तिवान बनकर एषणाको लाँघे बगैर अदीन और व्याकुल हुए बगैर वे विद्वान मुनि संयम यात्राके लिए उद्यम करते हुए विचरण करते
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थे।
२-तृषा परिसहः-रस्ते चलते हुए प्यास लगती थी तो भी वे तत्ववेत्ता मुनि दीन बनकर कच्चा पानी पीनेकी इच्छा न कर प्रासुक जल पीनेकीही इच्छा करते थे।
३-शीत परिसहः-सरदीसे तकलीफ पाते हुए और चमडीके रक्षण-रहित होते हुए भी वे महात्मा अकल्प्य (ग्रहण न फरने लायक) वन लेते न थे और न आग जलाते थे, न जलती हुई श्रागसे तापतेही थे।
'४-उष्ण परिसहः-गरमियोंमें धूपसे तपते हुए भी वे मुनि