________________
भ० ऋषभनाथका वृत्तांत
[४८७
किसी भी तरह उचित नहीं है। जो एक बार प्रभुकी देशना सुन लेता है वह हर्ष या शोक किसीसे भी पराभूत नहीं होता है; तब तुमने तो कई बार प्रभुकी देशना सुनी है, फिर भी तुम कैसे शोकके वशमें हो रहे हो ? जैसे बड़े समुद्र के लिए क्षोभ, मेरुपर्वतके लिए कंप, पृथ्वीके लिए उद्वर्तन ( उड़ना), वनके लिए कुंठत्व (मोथरापन), अमृतके लिए विरसता और चंद्रके लिए उष्णता असंभव है, वैसेही तुम्हारे लिए रुदन करना भी असंभव है (असंभव होना चाहिए।) हे धराधिपति ! तुम धीरज धारण करो और अपने प्रात्माको जानो; तुम तीन जगतके स्वामी और धैर्यवान भगवानके पुत्र हो।" इस तरह गोत्रके वृद्ध मनुष्यकी तरह इंद्रने भरत राजाको प्रबोध दिया इससे, जल जैसे शीतल होता है वैसेही, भरतने अपना स्वाभाविक धैर्य धारण किया । (५१०-५२१)
फिर इंद्रने तत्कालही, प्रभुके अंगका संस्कार करने के लिए साधन लानेकी श्राभियोगिक देवोंको आज्ञा की। वे नंदनवनमेंसे गोशीर्षचंदनकी लकड़ी ले आए। इंद्रके श्रादेशसे देवता
ओंने पूर्व दिशामें, गोशीपचंदनकी, प्रभुके शरीरके लिए एक गोलाकार चिता वनाई, इक्ष्वाकुवंशमें जन्मे हुए दूसरे महर्षियोंके लिए दक्षिण दिशामें दूसरी त्रिकोणाकार चिता रची और दूसरे साधुओंके लिए पश्चिम दिशामें तीसरी चौरस चिता चुनी। फिर मानो पुष्करावर्त मेघ हों ऐसे देवताओंके पाससे इंद्रने शीघ्रही क्षीर समुद्रका जल मँगवाया । उस जलसे प्रभुके शरीरको स्नान कराया और गोशीचंदनके रसका उसपर लेप किया, पीछे इस लक्षणयाले (सफेद) देवदुण्य वस्त्रोंसे