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२३० ] त्रिपष्टि शलाका पुरुप-चरित्रः पर्व १. सर्ग ३.
सफल होती है। उसके बाद वे अपने स्वजनों और परिजनोंको (कुटुंव और परिवारके लोगोंको) साथ ले, उत्तम विमानमें बैठ वैताव्य पर्वतकी तरफ गए । (१७२-१७५)
वैताव्य पर्वतके एक भागको लवणसमुद्रकी तरंगें चूम रही थीं। वह मानों पूर्व और पश्चिम दिशाका मानदंड' हो, ऐसा मालूम होता था। वह पर्वत भरतक्षेत्रके दक्षिण और उत्तर भाग की मध्यवर्ती (वीचकी) सीमाके समान है। वह पचास योजन विशाल (फैला हुआ) है, सबाछ:योजन पृथ्वीमें है और पृथ्वीसे पच्चीस योजन ऊँचा है। गंगा और सिंधु नदियाँ उसके
आसपास बहती हैं। उनसे ऐसा जान पड़ता है कि हिमालय दोनों हाथ पसारकर वैताढ्य पर्वतको भेट रहा है। भरतार्द्धकी लक्ष्मीके आराम और खेल करने के स्थानोंके समान खंडप्रपा
और तमिश्रा नामकी गुफाएँ उनमें हैं। चूलिका(शिखर)से जैसे मेरु पर्वत शोभता है वैसेही शाश्वत प्रतिमावाले सिद्धायतनकूट (मंदिर) से वह पर्वत अदभुत सुंदर मालूम होता है। माना नए कंठाभरण (गलेमें पहननेके जेवर) हों वैसे विविध रत्नोंवाले
और देवताओंके लिए लीलास्थान (खेलनेकी जगह ) रूप नौशिखर उसके ऊपर हैं। उसके वीस योजन ऊपर दक्षिण और उत्तरकी तरफ मानों वस्त्र हों ऐसी व्यंतरोंकी दो निवास श्रेणियाँ हैं। मूलसे लेकर चोटी तक मनोहर सोनेकी शिलाएँ हैं, उनसे वह पर्वत ऐसा मालूम होता है मानों स्वर्गका एक पादकटक
१-वह निश्चत किया हुया सर्वमान्य मान या माप जिसके अनुसार किसी प्रकारकी योग्यता, श्रेष्ठता, गुण श्रादिका अनुमान या कल्पना की जाए।