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सागरचंद्रका वृत्तांत
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प्रभुके आनंदके लिए पहलवानोंका रूप धरकर अपनी भुजाओंको ठोकते हुए एक दूसरेको अखाड़ेमें उतरनेके लिए ललकारते थे। इस तरह योगी जैसे तरह तरहकी विधियोंसे प्रभुकी उपा-. सना करते हैं वैसेही देवकुमार भी तरह तरहके खेल बताकर प्रभुकी उपासना करते थे। ऐसी स्थितिमें रहते हुए और उद्यानपालिकाएँ जैसे वृक्षका लालन करती हैं उसी तरह अप्रमादी पाँच दाइयोंके द्वारा लालित-पालित प्रभु क्रमशः बड़े होने लगे।
(६६०-६५२) अंगूठा चूसनेकी अवस्था पूरी होनेपर दूसरी अवस्थाको प्राप्त गृहवासी अरिहंत सिद्धअन्न (धाहुआ नाज) का भोजन .. करते हैं; परंतु नाभिनंदन भगवान तो उत्तरकुरु क्षेत्रसे देवताओं
के द्वारा लाए हुए कल्पवृक्षके फलोंका भोजन करते थे और क्षीरसमुद्रका पानी पीते थे। बीते कलकी तरह बचपनको पूरा कर, सूरज जैसे दिनके मध्यभागमें आता है वैसे प्रभुने, जिसमें अवयव पूर्ण दृढ़ हो जाते हैं, ऐसे यौवनका आश्रय लिया। जवान होनेके बाद भी प्रभुके दोनों चरण, कमलके मध्यभागके समान कोमल, लाल, उष्ण, कपरहित, पसीनेरहित और समान तलुएवाले थे। उनमें चक्रका चिह्न था, वह मानों दुखियोंके दुःखोंका छेदन करनेके लिए था, और माला, अंकुश तथा ध्वजाके चिह्न थे, वे मानों लक्ष्मीरूपी हथिनीको हमेशा स्थिर रखने के लिए थे। लक्ष्मीके लीलाभवनके समान प्रभुके चरणतलमें शंख और कुंभके चिह्न थे व एड़ीमें स्वस्तिकका चिह्न था। प्रभुका पुष्ट, गोलाकार और सर्पके फनकी तरह उन्नत अंगूठा, पत्सकी सरह श्रीवत्सके चिहवाला था। वायुरहित स्थानमें