Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 2
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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जननी रूप धर्मलाभ रूप आशीर्वाद दिया । फिर राजा कच्छप की तरह शरीर संकुचित कर प्रवग्रह भूमि को छोड़कर करबद्ध बने गुरु महाराज के सम्मुख बैठ गए । इन्द्र जिस प्रकार तीर्थङ्करों की देशना सुनते हैं उसी भांति वे ध्यानपूर्वक प्राचार्यश्री की देशना सुनने लगे । शरद् ऋतु में चन्द्रमा जिस प्रकार विशेष उज्ज्वल होता है उसी प्रकार आचार्य महाराज की देशना से राजा का वैराग्य बढ़ गया । तदुपरान्त वे हाथ जोड़कर विनययुक्त वारणी में बोले : 'हे भगवन् ! संसार रूपी विषवृक्ष के अनन्त दु:ख रूपी फल अनुभव करने पर भी मनुष्य को वैराग्य नहीं होता; किन्तु आपको वैराग्य हुआ और श्रापने संसार का परित्याग भी कर दिया । इसका अवश्य ही कोई कारण है वह कृपा कर बताइए ।'
( श्लोक ८९-९६) राजा द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर अपने दांतों की किरण रूपी चन्द्रिका से आकाशतल को उज्ज्वल करते हुए श्राचार्य महाराज बोले- 'राजन्, इस संसार के समस्त कार्य बुद्धिमानों के लिए वैराग्य के ही कारण होते हैं; किन्तु उनमें कोई एक ही संसार त्याग करते हैं । मैं जब गृहवास में था तब एक बार हस्ती, अश्व, रथ और पदातिक सेना लेकर दिग्विजय करने निकला । राह में चलते हुए मैंने एक अत्यन्त सुन्दर उद्यान देखा जो वृक्षों की छाया से जगत में भ्रमण करने के कारण थकी हुई लक्ष्मी का विश्राम स्थल-सा लगा । वह स्थान कंकोल वृक्ष के चंचल पल्लवों से मानो नृत्य कर रहा था, मल्लिका के पुष्प गुच्छों से जैसे हँस रहा था, विकसित कदम्ब पुष्पों के समूह से रोमांचित हो रहा था, प्रस्फुटित केतकी के पुष्प रूपी नेत्रों से निहार रहा था, शाल और ताल वृक्ष रूपी ऊँची बाहुनों से सूर्य किरणों को वहां गिरने से मना कर रहा था, वटवृक्षों से पथिकों को गुप्त स्थानों का संकेत दे रहा था। नाले का जल पादय (पैर धोने के लिए जल ) प्रस्तुत कर रहा था । फव्वारों से भरता जल मानो वर्षा को शृङ्खलाबद्ध कर रहा था। गु ंजन करते हुए भ्रमर मानो पथिकों को पुकार रहे थे । तमाल, ताल, हिन्ताल और चन्दनवृक्ष तले मानो सूर्य किरणों के भय से अन्धकार ने श्राश्रय ले लिया है ऐसा प्रतीत हो रहा था । ग्राम, चम्पक, नागकेशर और केशर वृक्ष पर मानो सुगन्ध लक्ष्मी का एकच्छत्र राज्य स्थापित हो गया था । ताम्बूल, चिरंजी और द्राक्षालता के प्रति