Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 2
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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होकर उनके साथ हो गए। चारणों के कोलाहल से प्रतिस्पर्धा कर रहा हो ऐसा आकाश प्रसारित करने वाला मङ्गल तूर्य का शब्द दूर से ही उनके आगमन की सूचना देने लगा। हस्तिनियों पर बैठी शृङ्गार-रस की नायिकाओं-सी हजार-हजार वारांगनाए” उनके साथ थीं। इस प्रकार हाथी पर आरूढ़ वे राजा वृक्षधाम-से नन्दन वन तुल्य उस उद्यान के निकट जाकर उपस्थित हुए । फिर राजाओं में कुजरतुल्य उस राजा ने हस्ती से अवतरण कर सिंह जिस प्रकार पर्वत कन्दरा में प्रवेश करता है उसी प्रकार उद्यान में प्रवेश किया।
__(श्लोक ६७-७६) वहां उन्होंने दूर से ही वज्र कवच की तरह कामदेव के शर के लिए अभेद्य, राग रूपी रोग के लिए औषध तुल्य, द्वेष रूपी शत्रु को तापदानकारी, क्रोध रूपी अग्नि के लिए नवीन मेघ तुल्य, मान रूपी वृक्ष के लिए हाथी के समान, माया रूपी सर्पिणी के लिए गरुड-से, लोभ रूपी पर्वत के लिए वज्र-से, मोहान्धकार के लिए सूर्यसे, तप रूपी अग्नि के लिए अररिण-से, क्षमा में पृथ्वी तुल्य, बोधिवीज के लिए जलधारा रूप, आत्मलीन महामुनि आचार्य अरिंदम को देखा । उनके समीप साधु-समुदाय उपविष्ट था। कोई उत्कटिक प्रासन में तो कोई वीरासन में, कोई वज्रासन में तो कोई पद्मासन में, कोई गो-दुहिका आसन में तो कोई भद्रासन में, कोई दण्डकासन में तो कोई वल्गुलिक प्रासन में, कोई क्रौंचपक्षी प्रासन में तो कोई हंसासन में, कोई पर्यङ्कासन में तो कोई उष्ट्रासन में, कोई गरुड़ासन में तो कोई कपालीकरण आसन में, कोई अाम्रकुजासन में तो कोई स्वस्तिकासन में, कोई दण्ड पद्मासन में तो कोई सोपाश्रय प्रासन में, तो कोई कायोत्सर्ग आसन में एवं कोई वृषभासन में बैठे थे । युद्ध क्षेत्र के सैनिकों की तरह विविध उपसर्ग सहन कर वे लोग स्वदेह की भी परवाह न कर गृहीत संयम का निर्वाह कर रहे थे । उन लोगों ने अन्तरंग शत्रुओं को जयकर लिया था एवं परिषह सहन करते हुए ध्यान मग्न थे।
(श्लोक ७७-८८) प्राचार्य-श्री के समीप जाकर राजा ने उन्हें वन्दन किया। उनका शरीर आनन्द से रोमांचित हो उठा । रोमांच के बहाने मानो वे अंकुरित भक्ति को धारण किए हों ऐसे लग रहे थे। प्राचार्य महाराज ने मुख के पास मुख वस्त्रिका लगाकर समस्त कल्याण की