Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 24
________________ और उन्हें दिगम्बरत्व और नग्नत्व का पोषक माना गया है। इसी सन्दर्भ में विष्णपराण का वह उद्धरण भी उल्लेखनीय है, जहाँ दिगम्बर, मुण्ड, बर्हिपिच्छधर, दिग्वास, वीतराग, अनेकान्तवाद, अर्हत् जैसे जैनधर्म के विशिष्ट शब्दों का उल्लेख हुआ है (१८.१.३०)। तीर्थङ्कर ऋषभदेव की प्राचीनता के सन्दर्भ में वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत का विशेष अवदान दिखाई देता है। ऋग्वेद में उल्लिखित वातरशना का उल्लेख श्रमण ऋषियों के लिए इस पुराण में भी आया है, जिससे यह सिद्ध होता है कि ऋग्वेद के ऋषभदेव और वातरशना ऋषि समुदाय जैन परम्परा से ही सम्बद्ध थे। वहाँ उन्हें श्रमण धर्म प्रवर्तक, दिगम्बर संन्यासी तथा उर्ध्वचेता कहा गया है। जीवन घटनाएँ तीर्थङ्कर ऋषभदेव अन्तिम कुलकर नाभिराज के पुत्र थे। उनकी माता मरुदेवी थीं। ईक्ष्वाकुवंशी नाभिराज अयोध्या के एक लोकप्रिय राजा थे। तरुण होने पर नाभिराज ने ऋषभदेव का विवाह सुनन्दा और सुमंगला से कर दिया। सुनन्दा ने तेजस्वी पुत्र बाहुबली और पुत्री सुन्दरी को जन्म दिया और सुमंगला ने भरत सहित ९९ पुत्रों और ब्राह्मी पुत्री को जन्म दिया। ___ समय आने पर ऋषभदेव ने भरत को अयोध्या का, बाहुबली को तक्षशिला का और शेष युवराजों को उनकी योग्यतानुसार राज्य सौंपकर संसार त्याग दिया और दीक्षा लेकर साधना में लीन हो गये। साधनाकाल में पाणिपात्री ऋषभदेव एक वर्ष तक निराहार रहे। बाद में बाहुबली के पौत्र श्रेयांस कुमार ने इक्षुरस देकर उनकी इस निराहारवृत्ति को तोड़ा। लगातार एक हजार वर्ष तक तपस्या करनेवाले मुनि ऋषभदेव ने अन्त में केवलज्ञान प्राप्त किया और धर्मदेशना प्रारम्भ की। प्रथम धर्मदेशना भरत के पुत्र मारीचि को दी, जो बाद में चौबीसवें तीर्थङ्कर महावीर बने। इसी तरह ब्राह्मी और सुन्दरी ने भी तीर्थङ्कर ऋषभदेव से दीक्षा ले ली। भरत के अन्य ९८ भाइयों ने भी जिन दीक्षा लेकर अपना आत्मकल्याण किया। इधर भरत चक्रवर्ती में सम्राट बनने की प्रबल आकांक्षा जागी। उन्होंने आत्मसमर्पित होने के लिए सभी नरेशों के पास दूत भेजे। महाबली बाहुबली को छोड़कर सभी नरेशों ने भरत का आधिपत्य स्वीकार कर लिया। व्यर्थ में प्राणीहिंसा न हो इस दृष्टि से दोनों भाइयों के बीच जलयुद्ध, दृष्टियुद्ध और मल्लयुद्ध हुआ। उनमें बाहुबली विजयी हए। भरत ने अपनी पराजय से क्रुद्ध होकर बाहुबली के ऊपर चक्र चलाया, पर वह बाहुबली का घात किये बिना ही वापिस आ गया। सगोत्रज और चरम शरीरी का वह वध नहीं करता। यह देखकर भरत लज्जित हुए तथा बाहुबली को साम्राज्य-लिप्सा से ग्लानि हुई, फलत: उन्होंने राज्य त्यागकर जिन दीक्षा ले ली और ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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