Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 124
________________ ११ राग-द्वेष भाव का विसर्जन ही त्याग है अर्थ और प्रतिपत्ति तप के बाद साधक का मन अपने शरीर से निरासक्त हो जाता है और वह त्याग की ओर बढ़ जाता है। यहाँ 'त्याग' और 'दान' दो शब्दों का प्रयोग होता है । साधारण तौर पर दोनों में अन्तर नहीं किया जाता है, पर गहराई से विचार करें तो दोनों शब्दों में अन्तर है । पदार्थ के प्रति राग-द्वेष भाव का विसर्जन करना 'त्याग' है। इस त्याग में 'स्व' को निमित्त बनाकर कषाय को छोड़ने का प्रयत्न किया जाता है । परन्तु 'दान' में दूसरे के लिए देने का भाव रहता है। उसमें राग का त्याग पर के निमित्त से होता है— स्वस्यातिसर्गे दानम् । पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय में 'स्व-परानुग्रहहेतोः' कहकर त्याग धर्म को स्पष्ट किया गया है। कुन्दकुन्दाचार्य ने सेमस्त द्रव्यों से मोह के त्याग को त्याग कहा है। उमास्वामी ने बाह्य, आभ्यन्तर, उपधि, शरीर और अन्नपानादि के आश्रय से होने वाले भाव - दोष के परित्याग को त्याग माना है। पूज्यपाद और अकलंक ने सचेतन और अचेतन परिग्रह की निवृत्ति को त्याग माना है। कुमारस्वामी ने मिष्ट भोजन, राग-द्वेषादि उत्पन्न करने वाले उपकरण और ममता भाव को उत्पन्न करने में होने वाले निमित्त रूप वसति के त्याग करने को त्याग कहा है। अभयदेवसूरि और सिद्धसेनगणि ने भी लगभग इसी प्रकार त्याग की व्याख्या की है। आगमों में त्याग के साथ ही प्रत्याख्यान शब्द का भी प्रयोग हुआ है । जो समानार्थक है। उत्तराध्ययन' में नव प्रकार के प्रत्याख्यानों की चर्चा आई है— संभोग (मण्डली भोजन), उपधि, आहार, आहार कषाय, योग, शरीर, सहाय, भक्त (भोजन) और सद्भावना प्रत्याख्यान । भगवती में प्रत्याख्यान को फल संयम बताया गया है। ठाणांग (स्थानाङ्ग ४.३१०) में चार प्रकार के त्याग का उल्लेख है -- मन, वचन, काय और उपकरण त्याग। इनका सम्बन्ध साधुओं के भोजनादि दान से जोड़ा गया है । इन उल्लेखों से पता चलता है कि त्याग में वैराग्य - भावनापूर्वक शुभ-अशुभ योगों का त्याग किया जाता है और संपत्ति आदि का दान दिया जाता है। शुद्धोपयोग Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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