Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 129
________________ ११७ आदी हो जाते हैं, पर अपने दोष नहीं देख पाते, क्योंकि अपने दोष अचेतन में चले जाते हैं। इसलिए सन्तों ने कहा है--- निन्दक नियरे राखिए, आंगन कुटी बनाय।' भीतर जब खालीपन होता है तब लोभ उत्पन्न होता है। यह लोभ ऊपरी रहता है, क्योंकि अन्दर का खालीपन धन-सम्पत्ति से नहीं भरा जाता। अन्तर तो भरा हुआ ही है, हम उसे समझ नहीं पा रहे हैं। जो भरा है उसे हम खाली मान रहे हैं। आत्मा में कोई वस्तु रहती नहीं, इसलिए वह खाली दिखती है, पर वह खाली नहीं है, अनन्त गुणों का वह संग्रह है, जिसे लोभी व्यक्ति देख नहीं पाता। साधु भी यदि आत्मद्रष्टा नहीं है तो वह लोभी है, गृहस्थ है- “जे सिया सन्निहिकामे, गिही पव्वइए न से।" उत्तम त्याग वह है, जहाँ दान में कोई राग-द्वेष नहीं हो। दान यदि अपनी प्रतिष्ठा बनाने के लिए किया गया हो, पत्थर पर नाम लिखा कर अमर बनने के लिए किया गया हो, तो वह दान उत्तम त्याग नहीं है, मूर्छापूर्वक विसर्जन मात्र है। ऐसा दान तो एक सौदा है व्यापार है, इसलिए कर्म-निर्जरा का कारण नहीं कहा जा सकता है। सन्दर्भ .. पिन णिव्वेग तियं भावइ मोहं चइऊण सव्वदव्वेसु। जो तस्स हवे चागो इदि भणिदं जिणवरिं देहि।। – वा० अणु० ७८। त्यागो दानं, तच्छक्तितो यक्षविधि प्रयुज्यमानं त्याग:। - स०सि०, ६-२४। जो चयदि मिट्ठभोज्जं उवमरणं रायदोससंजणयं। वसदिं ममत्तहेतुं चायगुणो सो हवे तस्स।। - का० अनु० ४०१। चागो णाम वेयावच्चकरणेण आयरियो वज्झयादीणं महती कम्मनिज्जरा भवइ--| दशवै० चू० १, पृ० १८। परप्रीतिकरणतिसर्जनं त्यागः – तत्त्वार्थवा० ६.२४.६. आहाराभयज्ञानानां भवाणां विधिपूर्वकमात्मशक्त्यनुसारेण पात्राय दानं शक्तितस्त्याग उच्यते- तत्त्वार्थवृत्ति श्रुत, २.२४. Jain Education International 2010.03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150