Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 141
________________ १२९ आशा और तृष्णा के कारण व्यक्ति भौतिक साधनों को एकत्रित करता है। प्रकृति के साथ क्रूर व्यवहार करता है और हिंसक साधनों का उपयोग कर सृष्टि पर प्रहार करता है | तीर्थंकर महावीर ने जिस अहिंसक, संयमित ओर मानवीय जीवन-पद्धति का सूत्रपात किया है, उसका परिपालन करने से ये समस्यायें उत्पन्न ही नहीं होती । पर्यावरण को सुरक्षित रखने और सामाजिक सन्तुलन को बनाये रखने में जैनधर्म ने जो अहिंसा और अनेकान्त के सिद्धान्त दिये हैं, वे निश्चित ही बेमिशाल हैं। उनका यदि सही ढंग से परिचालन किया जाये तो विश्वशान्ति प्रस्थापित होने में बड़ी मदद मिल सकती है। भौतिकता की अन्धाधुन्ध चकाचौंध जीवन में संघर्षों को आमन्त्रित करती है । अनन्त आकांक्षायें अपनी आशा के पर बांधे आकाश में उड़ने लगती हैं और अपूर्त होने की स्थिति में धड़ाम से नीचे गिर जाती हैं, पंख कटकर पानी के बबूले जैसे बिखर जाते हैं। संसार के मायाजाल को सत्य के कटोरे में लेकर व्यक्ति घूमता फिरता है, अनेक मुखौटे लगाकर उसकी रक्षा करता है और धक्के लग जाने पर वह टूटकर बिखर जाता है। सारी जिन्दगी की यही कहानी है । ब्रह्मचर्य किंवा अध्यात्म भीतर का दीपक है, जो इस कहानी को सही ढंग से, सही आँखों से देखता है और सूत्र देता है जीवन को सही ढंग से समझने का, उसके साथ बतयाने का। जब तक मुखौटों को अलगकर सत्य की ऋचाओं का संगीत कानो में नहीं पहुँचता, तब तक हृदय की वीणा के तार अनखुले ही रह जायेंगे और जीवन सूत्र कटते चले जायेंगे। पर्युषण जैसे पवित्र पर्व ऐसे बिखरे सूत्रों को संयोजित करने का एक अमोघ साधन है, अपूर्व अवसर है जिसे हाथ से नहीं खोना चाहिए । सन्दर्भ १. २. सव्वंगं पेच्छंतो इत्थीणं तासु मुयदि दुब्भावं । सो बम्हचेरभावं सुक्कदि खलु दुद्धरं धरदि । । जीवो बंभा जीवम्मि चेव चरिया हविज्ज जा जदिणो । ते जाण बम्भरं विमुक्कपरदेहतित्तिस्स ।। ३. ज्ञानं ब्रह्म दया ब्रह्म ब्रह्मकामविनिग्रहः । सम्यगत्रं वसन्नात्मा ब्रह्मचारी भवेन्नरः । । ४. आत्मा ब्रह्म विविक्तबोधनिलयो यत्तत्र चर्यं परं स्वाङ्गासंगविवर्जितैकमनसस्तद् ब्रह्मचर्यं मुनेः । एवं सत्यबलाः स्वमातृभगिनी पुत्रीसमाः प्रेक्षते वृद्धाद्या विजितेन्द्रियो यदि तदा स ब्रह्मचारी भवेत् । Jain Education International 2010_03 ― बा० अणु० ८०1 भ० आ० ८७८ उपासका०, ८७२। - पद्म० पंच०, १२.२ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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