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आत्मा में रमण करना ही ब्रह्मचर्य है
अर्थ और प्रतिपत्ति
आकिञ्चन्य धर्म का पालन करने बाद साधक निष्परिग्रही हो जाने के कारण आत्मरमण करने की स्थिति में आ जाता है। ब्रह्म का अर्थ है - आत्मा । अनगारी साधक आत्मा में रमण करता है, आत्मचिन्तन करता है और सागार या श्रावक वर्ग अपनी कामवासना को सीमित करने के लिए ब्रह्मचर्याणुव्रत को धारण कर लेता है। साधक मुनि वर्ग पूर्ण ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करता हैं और उपासक वर्ग एक देश ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करता है, वह स्वदार संतोषी अर्थात् परदारत्यागी होता है।
कुन्दकुन्दाचार्य के अनुसार स्त्रियों के सब अंगों के देखते हुए भी उनमें दुष्टभाव नहीं करना ब्रह्मचर्य है । उमास्वाति ने इसे और अधिक स्पष्ट कर यह और कह दिया कि इष्ट मनोज्ञ स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, शब्द, विभूषादि से आनन्दित न होना ब्रह्मचर्य का विशेष गुण है। व्रतों के परिपालन के लिए गुरुकुल में वास करना ब्रह्मचर्य है। पूज्यपाद ने इसमें अनुभूत स्त्री का स्मरण न करना, स्त्री विषयक कथा श्रवण का त्याग करना और स्त्री से सटकर सोने या बैठने का त्याग करना और जोड़ दिया है। अकलंक, सिद्धसेन गणि, कुमार कार्तिकेय आदि आचार्यों ने इसी कथन का समर्थन किया है।
इन सारी परिभाषाओं का केन्द्रबिन्दु है काम- गुणों पर विजय प्राप्त करना। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध के उपभोग में निरपेक्ष हो जाना, तटस्थ हो जाना और समभाव द्वारा उन सभी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना ब्रह्मचर्य धर्म है। इसे निरतिचारपूर्वक परिपालन करना आवश्यक है । पाँच काम गुणों में आसक्ति के लिए क्रमश: प्रसिद्ध हैं— हरिण, हाथी, पतंगा, भ्रमर और मछली । कामगुणों की आसक्ति के कारण ये प्राणी अपनी जान गंवा देते हैं। यदि पाँचों कामगुण किसी एक व्यक्ति में केन्द्रित हो जायें तो उसकी क्या स्थिति होगी, विचारणीय है।
तन्त्र परम्परा और जैन चिन्तन
तन्त्र परम्परा में अनुभव करने के बाद ही उससे मुक्त होने की बात कही गई है, पर जैन परम्परा इसके विपरीत है। उसका मन्तव्य है कि इस प्रकार का अनुभव एक आदत का रूप ग्रहण कर लेता है, जिससे मुक्त होना सरल नहीं होता। अतः आदत
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