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१२४ डालने का मौका ही न आने दिया जाये। आदत बनने के पहले ही उस ऊर्जा को ऊपर उठने का अवसर दिया जाये, तो अधिक अच्छा है।
कांट ने तो ब्रह्मचर्य में हिंसा होने का विचार व्यक्त किया है, जो सही नहीं है। विज्ञान की दृष्टि से सम्भोग में दस करोड़ जीवों का घात होता है। उनमें से एक ही बाहर आ पाता है। अत: अब्रह्मचर्य को ही हिंसा कहा जाना चाहिए। ब्रह्मचर्य व्यक्ति को स्वतन्त्र बना देता है। शरीर का शृङ्गार दूसरों के लिए किया जाता है। विपरीत का आकर्षण होता ही है। आत्मा की खोज में विपरीत का कोई उपयोग नहीं होता। इसमें सम्यक् सन्तुलन की आवश्यकता होती है। स्वादिष्ट और पौष्टिक भोजन भी उपयोगी नहीं रहता। सम्यक और शुद्ध शाकाहारी आहार हो, तभी ब्रह्मचर्य व्रत का संरक्षण हो सकता है। इस उद्देश्य को पाने के लिए इन्द्रिय वासनाओं पर विजय प्राप्त करना और आहार में रस-त्याग करना बहुत ही आवश्यक है। रस-त्याग किये बिना आत्मानुभव नहीं हो सकता। ब्रह्मचर्य और आधुनिक मनोविज्ञान
वस्तुत: शक्ति एक है। उसका उपयोग करना हम पर निर्भर करता है। हमारी वृत्ति और प्रवृत्ति उस शक्ति को नीचे ले जाये या ऊपर ले जाये। इसका निर्णय हमें स्वयं करना पड़ेगा। योग में काम का अनुभव नहीं किया जाता, पर तन्त्र अनुभव के रास्ते से गुजरना आवश्यक मानता है। महावीर की दृष्टि में काम का अनुभव आदत का रूप ले लेता है और फिर आदत से मुक्ति पाना सरल नहीं होता। हमारा अधिकांश जीवन आदत पर ही चलता है। काम भी एक आदत है, रस है। यदि उसका अनुभव ही न किया जाये तो फिर आदत बनने का प्रश्न ही नहीं उठता।
आज का मनोविज्ञान कहता है कि बालक पर प्रारम्भिक अवस्था में जैसे संस्कार गिर जायें, सारे जीवन फिर वह उन्हीं संस्कारों से जीता है। अधिक से अधिक सात साल तक बच्चे को संस्कारित किया जा सकता है। उसके बाद उसे बदलना सरल नहीं होता। गर्भाधान से ही हमारे संस्कारों की नींव पड़ जाती है। इसलिए उस पथ से चलना ही नहीं चाहिए जहाँ गड्ढे हों, गिरने का भय हो। महावीर इसलिए इस प्रकार के अनभव से दूर रहना ही हितकर मानते हैं।
काम आसन्न केन्द्रीय भाव है। हमारी अधिकांश प्रवृत्तियाँ उसी के इर्द-गिर्द घूमती रहती हैं। इसलिए अनुभव पाने की व्यग्रता से मुक्त होना सरल नहीं है। इस स्थिति में एक मार्ग यह है कि व्यक्ति अनुभव पाने के लिए गृहस्थ-मार्ग का अनुकरण करे, पर अध्यात्म का चिन्तन न छोड़े। अणुव्रत की स्थापना के पीछे यही एक उद्देश्य है कि व्यक्ति कामादिक भाव को यदि न सह पाये तो सीमित होकर उसका अनुभव कर ले और वहीं से महाव्रती बनने का संकल्प करे। अणुव्रती से महाव्रती बनने का एक यह भी मार्ग है जहाँ किसी भाव का दमन नहीं किया जाता, बल्कि अनुभव के माध्यम
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