Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 130
________________ निर्ममत्व की ओर बढ़ना ही आकिञ्चन्य है अर्थ और प्रतिपत्ति त्याग का आचरण करने के बाद साधक के पास स्वयं के अतिरिक्त बचता ही क्या है? वह अपरिग्रही हो जाता है। सांसारिक माया जाल में उसकी कोई आसक्ति नहीं रहती, वह मात्र एकत्व पर मनन करता है। कुन्दकुन्दाचार्य के अनुसार- सभी प्रकार से निःसंग होकर सुख-दुःख देने वाले आत्म भावों का निग्रह कर निर्द्वन्द्व रहना आकिञ्चन्य है। उमास्वाति, पूज्यपाद आदि आचार्यों ने भी “निर्ममत्व का होना आकिञ्चन्य है" ऐसा माना है। कुमारस्वामी ने कहा है कि जो लोक-व्यवहार से विरक्त मुनि चेतन-अचेतन परिग्रह को मन, वचन, काय से सर्वथा छोड़ देता है उसे आकिञ्चन्य धर्म होता है। स्थानाङ्ग (४.३५३) में यह अकिञ्चनता चार प्रकार की बताई गई है- मन, वचन, काय और उपकरण की अकिञ्चनता। इसका तात्पर्य है मन, वचन, काय और उपकरण की निष्परिग्रहणता में ही एकत्व फलता-फूलता है। इस अवस्था तक आते-आते साधक अपने चिन्तन और दृष्टि के माध्यम से स्थिरतापूर्वक यह विचार करने लगता है कि संसार में जो आया है उसका जाना निश्चित है। दुनियाँ में सिकन्दर, हिटलर जैसे अनगिनत शक्तिशाली सम्राट हो चुके हैं, जिन्होंने लाख कोशिश की पर उन्हें जिन्दगी का एक क्षण भी उधार नहीं मिल सका। मृत्यु देवता ने दरवाजे पर जब भी दस्तक दी, वह खाली हाथ नहीं गया और यह भी उतना ही सत्य है कि कोई भी मट्ठी बाँधकर नहीं ले गया। उसकी सारी सम्पत्ति और सारे पारिवारिक मित्र यहीं रह गये, कोई साथ नहीं गया। साधक की संवेग और वैराग्य भावना यही सोचकर दृढ़तर होती जाती है और सांसारिक पदार्थों से मोह छूटता चला जाता है। मोह, ममता इतनी प्रबल होती है कि जल्दी से सरलतापूर्वक वह पीछा नहीं छोड़ती। इसलिए सबसे पहला काम साधक का यह रहता है कि वह मन को संयमित करे और ऐसे निमित्तों से बचे जो उसे आसक्ति में जकड़ने के लिए खडे हुए हों। उसकी अन्तर्चेतना इतनी जाग्रत हो जाय कि निमित्त सामने रहने पर भी वह मन को आकर्षित ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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