Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 126
________________ ११४ करना औषधिदान है और पशु-पक्षियों की सेवा करना, ऐसी व्यवस्था करना कि कोई उनका शिकार न कर सके, अभयदान है। ये दान किसी भी आसक्ति के साथ नहीं दिये जाने चाहिए। आसक्तिपूर्वक दिया गया दान निरर्थक होता है। त्याग धर्म है और दान पुण्य है। पर-पदार्थ का त्याग तो हो सकता है, पर दान नहीं हो सकता। नदी निर्मल होती है त्याग से। तेनसिंह चढ़ा भार हलका कर। मुक्ति के लिए भी संसार सागर त्यागकर अपने परिग्रह का भार हलका कर प्रस्थान करना चाहिए। सांसारिक आसक्ति जोंक के समान खून चूसने वाली होती है। आसक्ति ही दो दिलों में भेद पैदा कर देती है। धन की चाह में भाई अपने भाई का गला काटने को तैयार हो जाता है। न्यायालयों की सीढ़ियाँ चढ़ते-उतरते पीढ़ियाँ दर पाढ़ियाँ अस्त हो जाती हैं, पर मुकदमों की श्वासें बन्द नहीं हो पातीं। त्याग और ग्रहण के बीच कभी-कभी अन्तर्द्वन्द्व चल जाता है। त्याग जब परिपक्व नहीं होता तो साधक का मन संसार में वापिस आने की ओर चंचल हो उठता है। भर्तहरि और शुभचन्द्र तपस्वी हो जाते हैं, पर ऐसे ही अन्तर्द्वन्द्व में भर्तृहरि सही रास्ता नहीं अपना पाते। भर्तृहरि साधना कर ऐसी स्वर्ण रस सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं, जिससे पत्थर भी सोना हो जाता है। शुभचन्द्र के पास वे रस भेजते हैं, यह सोचकर कि शुभचन्द्र दिगम्बर मुद्रा में दरिद्र हैं, अत: इस रस से वे स्वर्ण बनाकर धनी हो जायेंगे। शुभचन्द्र ने उस रस को यों ही फेंक दिया और कहा कि यदि सोना ही चाहिए था तो तपस्या क्यों की। अन्ततः भर्तृहरि को शुभचन्द्राचार्य सन्मार्ग पर ले आये। राग-द्वेषादि विकारों का त्याग कर देने पर इल्म, दौलत और शराफत एक साथ कैसे रह सकते हैं। कषायमुक्ति: किलमुक्तिरेव। दौलत का अर्जन करने के बाद यदि विसर्जन नहीं किया जाता तो वह दो लातें देकर घर के बाहर निकल जाती है। विसर्जन के साथ कोई इच्छा नहीं जुड़ी रहनी चाहिए। निष्काम दान और याचना के सन्दर्भ में वरतन्तु-कौत्स का उदाहरण प्रसिद्ध ही है। ___त्याग वस्तुत: पूरे मन से होना चाहिए और स्थिर होना चाहिए। जैसी करनी वैसी भरनी का ध्यान रखते हुए त्याग के वास्तविक रूप पर विचार करना चाहिए। इससे विचारों की पवित्रता और दूसरे की दृष्टि का आदर करने की प्रकृति का निर्माण होगा। धनार्जन यदि शुद्ध साधनों से नहीं होगा तो धन की दुर्गति ही होगी। साध्य और साधन की पवित्रता त्याग का मूल रूप है। पवित्र हृदय से उद्भूत दान देने के संस्कार जीवन के अन्तिम समय में भी नहीं छूटते। कर्ण का उदाहरण हमारे सामने है। रथचक्र के धंस जाने पर असहाय अवस्था Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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