Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 111
________________ बन्ध, व्यायाम और प्राणायाम करना पड़ता है। निरासक्त होकर साधक इन साधनों का उपयोग कर शरीर की अशुचिता और अनित्यता पर चिन्तन करता है। सामाजिकता के लिए वचन शक्ति एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र है, जीवन शक्ति का एक अन्यतम साधन है। वचन का सम्बन्ध मन से होता है और फिर शरीर से उसकी अभिव्यक्ति होती है। भावों की दुनियाँ से शरीर अपने आपको बचा नहीं सकता। क्रोधादि भाव शरीर में कहीं न कहीं प्रकट हो जाते हैं। भावों के अनुसार ही हम उच्चारण करते हैं, जप करते हैं और ओमादि बीजाक्षरों की पुनरुक्ति से ऊर्जा का अधिग्रहण करते हैं। इसलिए शरीर की शुद्धि के साथ ही वचन की भी शुद्धि होनी चाहिए। वाक्शुद्धि संयम का ही अंग है। मन हमारी वृत्ति और प्रवृत्ति के अनुसार दौड़ता है, कभी-कभी न चाहते हुए भी मानसिक वृत्ति के कारण शरीर और वचन की प्रवृत्ति हो जाती है। भावना, संस्कार और वृत्ति से मन पर अनेक तरह के चित्र बनते रहते हैं। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग से आस्रव के झरने फूटते रहते हैं। संकल्प की दृढ़ता और एकाग्रता से इन झरनों को सुखाया जाना अत्यावश्यक है। पुराने संस्कार और आदतों की प्रक्रिया ध्यान से बदली जा सकती है। आदत स्वभाव नहीं है, जिसे हम बदल नहीं सकते। आदतों को संयम के माध्यम से बदला जा सकता है, आध्यात्मिक चिन्तन और आत्मानुभूति के प्रयोग से आदतों से छुटकारा पाया जा सकता है, यही संयम की शक्ति है। सन्दर्भ .. वयसमिदिकसायाणं दंडाणं इंदियाण पंचण्हं। धारण-पालण-णिग्गह-चाय-जओ संजमो भणिओ।। - पंचसंगहो (प्रा०) १.१२७. .. वदसमिदिपालणाए दंडच्चोएण इंदियजयेण। परिणममाणस्स पुणो संजमधम्मो हवे णियमा।। - बा०अणु० ७६. प्राणीन्द्रियेष्वशुभप्रवृत्तेविरति: संयमः । स०सि० ६.१२. संजमो नाम उवरमो रागद्दोसविरहियस्स एगिभावे भवइत्ति। दशवै० चू०, पृ० १५. संयमस्तु प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणः । ध्या०श०७० ६८. .. धर्मोपबृंहणार्थं समितिषु वर्तमानस्य प्राणेन्द्रियपरिहारस्संयमः। स०सि०, ९.६. ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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