Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 115
________________ १०३ की लालसा में वह दुःख पाने से बच भी नहीं पाता और सम्यग्ज्ञान न होने के कारण कायिक दुःख में भी वह सुख का अनुभव करता है । जो आगे चलकर वह एक आदत के रूप में मन में घर कर जाता है। तप का सम्बन्ध स्वयं से लड़ना नहीं है । यदि तपस्वी स्वयं से लड़ता है तो वह तप का विकृत रूप है, आत्मदमन है और आत्मदमन तप हो नहीं सकता है। उसमें तो जिस वृत्ति का दमन किया जायेगा वह प्रक्षेपित होकर और भी विकृत रूप में सामने आयेगी । प्राचीन आगमों में ‘इन्द्रियदमी' जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ है। वहाँ वस्तुतः दमन का अर्थ वृत्ति को दबाना नहीं है, शमन करना था और यह शमन किया नहीं जाता है, हो जाता है। इसमें तपस्वी विपरीत वृत्ति से लड़ता नहीं है, क्योंकि यदि वह लड़ेगा तो अप्रत्यक्ष रूप में उसी ओर खिंचता चला जायेगा। काम या धन से लड़ने वाले तपस्वी का खिंचाव उसी ओर बढ़ता जायेगा। फलतः प्रकृति से वह विकृति की ओर जायेगा, संस्कृति तक नहीं पहुँच पायेगा। संस्कृति तक पहुँचने के लिए उसे विकृतियों से ऊपर उठना होगा। ध्यान के अध्ययन से उन वृत्तियों को शक्ति के रूप में परिणत करना होगा । कामवासना का केन्द्र शरीर का सबसे नीचे का भाग है जहाँ हम प्रकृति से जुड़े हैं। हमारा ध्यान वहाँ न होकर यदि सहस्रार चक्र पर हो तो तप से एक ऊर्जा मिलेगी, जो साधक को विकृतियों से बचा सकेगी, शक्ति को रूपान्तरित कर सकेगी। तप को अग्नि भी कहा गया है। अग्नि ऊर्ध्वगामिनी होती है । अन्तर की इस अग्नि का स्वभाव भी ऊपर उठना है। इसे यदि हमने सही मार्ग दे दिया तो यह सहस्रार चक्र तक पहुँच जायेगी, क्योंकि उस मार्ग पर आदत का कोई नामोनिशान नहीं रहता । आदत स्वभाव नहीं है। आदत तो हम स्वयं निर्मित करते हैं और जिसका निर्माण किया जाता है, वह स्थायी नहीं होता। इसलिए आदत से मुक्त हुआ जा सकता है। वह शरीर और मन के बीच एक सुलह है, जिससे व्यक्ति बार-बार उस पर ध्यान देता है, पुनरावृत्ति करता है और फिर आदत का निर्माण कर लेता है । पुनरावृत्ति का रस मन में न हो तो आदत से मुक्त होना कठिन नहीं है । शरीर को तो हम अपने अनुसार मोड़ सकते हैं। असली प्रश्न है मन की चंचल गति को रोकना। मन की दौड़ से ही आदत बनती है। तप आदत नहीं है, ध्यान के माध्यम से अपने मूल स्वभाव को प्राप्त करना है, केन्द्र को बदलना है। महावीर ने तप को इसीलिए ऊर्जा कहा है कि सम्यक् रूप से तपस्वी उस ऊर्जा को प्राप्त कर लेता है और उसके क्रोधादि विकार शान्त हो जाते हैं, मन शीतलता का अनुभव करता है । शरीर को कृश करना तप नहीं है, मन को कृश करना तप है, सही मन से शरीर को कृश कर उस ऊर्जा से सम्बन्ध स्थापित कना तप है। यह ऊर्जा ही आभामण्डल है, जो हमारे शरीर के बाहर हमारे भावों के अनुसार वर्तुल रूप में बना रहता है। इसे ही हमारे ग्रन्थों में सूक्ष्म शरीर कहा गया है। योग में चक्रों की सारी व्यवस्था इसी सूक्ष्म Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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