Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 118
________________ १०६ प्रकाश फैल जाता है। वृत्ति को केन्द्रित करने के बाद रस परित्याग होता है। रस-परित्याग का तात्पर्य मधुर, आम्ल, तिक्त, कषायला और लवण में से किसी रस या रसों का परित्याग करना मात्र नहीं है। असली बात है रस परित्याग कर उसके स्वाद से मन को अलग कर देना। वस्तु तो स्वाद का निमित्त मात्र है। यदि अन्तर उससे जुड़ा न हो तो स्वाद आयेगा ही नहीं। मृत्यु और मिष्ठान्न दोनों सामने हों तो मिष्ठान्न का स्वाद आयेगा कैसे? न मिठाई का मीठापन गया है और न इन्द्रिय की स्वाद ग्रहणशीलता कम हुई है, पर मन उसे पकड़ने की स्थिति में नहीं है। अत: रस परित्याग कर मन को वश में करना आवश्यक है। अन्यथा वह और भी वेग से आक्रमण कर सकता है। मन बार-बार स्वाद को लेना चाहता है पर चेतना यदि उससे नहीं जुड़ी है तो मन भी क्या करेगा? रस-स्वाद से मुक्त होने के लिए कभी-कभी दूसरे रस को ले लेते हैं, नमक छोड़कर उसे स्थान पर मीठा ग्रहण करने लगते हैं। पर यह तो बेइमानी है। इससे हम स्थानपूर्ति ही करते हैं। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि जिन बच्चों को प्यार नहीं मिलता, माँ का दूध नहीं मिलता वे अंगूठा चूसने लगते हैं और वही बड़े होकर सिगरेट पीने लगते हैं। एकाकीपन को दूर करने के लिए शराब और सिगरेट का साथ लेने लगते हैं। अत: चेतना के सहयोग से मन को रोका जाना चाहिए। रस-परित्याग के बाद कायक्लेश है, जिसे परीषह या उपसर्ग कहा जाता है। इसमें शरीर को कष्ट नहीं दिया जाता, बल्कि शरीर से तादात्म्य छोड़ा जाता है। तादात्म्य छोड़ने के लिए कभी-कभी साधक कष्ट आमन्त्रित करता है और कभी प्रकृति से स्वभावत: जो मिलता है उसे सहता है। प्रकृति से जो दुःख मिलता है उसे साधक प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करता है और जप, तप आदि के माध्यम से कष्टों को आमन्त्रित कर शरीर से राग छोड़ता है। कायोत्सर्ग, वीरासन, प्रतिमासन, दंडासन आदि धारण कर शरीर से ममत्व को त्यागने की प्रक्रिया की जाती है। केशलुंचन भी उनमें एक है। काय-क्लेश से किसी प्रकार के सुख की अकांक्षा नहीं होती बल्कि उस दुःखानुभव से दुःख से मुक्ति होती है। काय-क्लेश संलीनता का कारण बन जाता है। संलीनता का असली अर्थ है स्व में लीन हो जाना। स्व में लीन होने के लिए कुछ सीढ़ियाँ पार करनी पड़ती हैं। सबसे पहली और मुख्य सीढ़ी है- शरीर को हलन-चलन क्रिया से मुक्त करना। काय-क्लेश या तप करते समय शरीर स्थिर रहना चाहिए। मानसिक व्यग्रता होगी तो हाथ-पैर चलेंगे। क्रोध में नथुने फूलना, आँखे लाल होना व्यग्रता का परिणाम है। कमर को झुकाकर बैठना, दीवाल से टिक जाना हमारी व्यग्रता का ही प्रदर्शन है। इस व्यग्रता और बहुचित्तता को रोकना आवश्यक है। यहाँ संलीनता का तात्पर्य है सम्यक् निरीक्षण Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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