Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 116
________________ १०४ शरीर से होती है। यही सक्ष्म शरीर वास्तविक शरीर कहा जाना चाहिए, क्योंकि दृश्य शरीर का क्षरण होता जाता है, नष्ट हो जाता है पर अदृश्य सूक्ष्म शरीर कभी नष्ट नहीं होता, प्राण-ऊर्जा नष्ट नहीं होती। वह शरीर से बाहर निकलकर नये शरीर की खोज करती है और यह खोज भावों या कर्मों के अनुसार होती है। इसी को पुनर्जन्म कहते हैं। तप के प्रकार जैन धर्म में तप को दो रूपों में विभाजित किया गया है- बाह्य तप और आभ्यन्तरतप। तप के ये दो हिस्से हैं। बाहर से अन्तर में जाना इसका उद्देश्य है। इसलिए ये दोनों प्रक्रियायें साथ-साथ चलती हैं। बाह्य तप करना मिथ्या तप माना गया है। बाह्य तप है- अनशन, ऊनोदर, वृत्तिसंक्षेप, रस-परित्याग, काय-क्लेश और विविक्त शय्यासन। आगमों में इन तपों का विस्तृत वर्णन मिलता है। वहाँ कनकावली, एकावली आदि विविध प्रकार के तपों का उल्लेख हुआ है। इन तपों में बाह्यतप के बिना आभ्यन्तर तप अधिक कार्यकारी नहीं होता, भीतरी आत्मतत्त्व को सक्रिय करने के लिए शरीर को तपाना ही पड़ता है।दूध को तपाने के लिए बर्तन की जरूरत पड़ती ही है। इन तपों को संक्षेप में हम निम्न प्रकार से समझ सकते हैं। बाह्यतप अनशन का तात्पर्य है अचानक भोजन से निवृत्ति अर्थात् उपवास। भोजन की आवश्यकता होती है शरीर को सुस्थिर रखने के लिए। जब भोजन बन्द कर दिया जाता है तब शरीर अपने भीतर ही रहने वाली चर्बी को अपना भोजन बना लेता है। इसलिए कहा जाता है कि नब्बे दिन तक व्यक्ति भोजन के बिना रह सकता है। यह एक संकटकालीन प्राकृतिक व्यवस्था है। सात-आठ दिन के बाद भूख भी समाप्तप्राय हो जाती है, क्योंकि शरीर अपने ही भीतर से भोजन लेना शुरू कर देता है। भोजन लेने और छोड़ने के बीच के संक्रमण काल पर चिन्तन करना अनशन का उद्देश्य है। इस चिन्तन में “मैं शरीर नहीं हूँ" पर गहराई से विचार किया जाता है। शरीर के साथ भोजन का तादात्म्य सम्बन्ध है। जितना अधिक भोजन होगा, शरीर पर उतना ही अधिक ध्यान जायेगा। इस तादात्म्य सम्बन्ध से फिर निद्रा आने लगती है। भोजन के बाद नींद के आने का यही कारण है। अनशन करने से नींद नहीं आयेगी, जागरण होगा। जो ऊर्जा आहार के पाचन में लग रही थी वह अब चिन्तन में लग जायेगी। इसलिए अनशनकाल में शरीर की अस्थिरता पर चिन्तन करना आवश्यक है। इस सन्दर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि अनशन करने वाले का भोजन भी सात्विक होना चाहिए। तामसिक भोजन से कामोद्दीपन होता है। मांस भक्षण से काम और राग अधिक बढ़ते हैं, पाचन क्रिया पर भी जोर पड़ता है। इसलिए पूर्ण शाकाहारी होना तपस्वी के लिए एक शर्त है। यह भी शर्त है कि अनशन करने वाला आहार Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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