Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 114
________________ १०२ तपस्यायें शरीर को मात्र कष्ट देना है, यदि उससे सम्यग्ज्ञान या विवेक न जुड़ा हुआ हो। यथार्थ तप अन्तर्मुखी होता है और परमात्म अवस्था को पाने के संकल्प के साथ किया जाता है। तीर्थङ्कर ऋषभदेव ने छद्मावस्था में एक हजार वर्ष तक तप किया। अन्य तीर्थङ्करों ने भी इस प्रकार तप कर अपने कर्मों की निर्जरा की। महावीर ने बारह वर्ष की उत्कृष्ट साधना की, जिसमें ३४९ दिन ही आहार ग्रहण किया। उनके शिष्यों में धन्ना अनगार जैसे महादुष्करकारक उग्र तपस्वी थे, जिन्होंने मुक्तावली, एकावली, आयंबिल, भिक्षुप्रतिमा, सर्वतोभद्रप्रतिमा आदि अनेक प्रकार के तप किये और निर्वाण प्राप्त किया। तप वस्तुतः आध्यात्मिक साधना का आलम्बन है । उसमें जब त्रियोग के परमाणु तथा तैजस और कार्मण के अति सूक्ष्म परमाणु उत्पन्न होते हैं, तब परिणामों में निर्मलता आती है, विषय- कषायों का शमन होता है और कर्मों की निर्जरा होती है। यह वस्तुतः एक अन्तर्यात्रा है जो स्थूल से सूक्ष्म की ओर होती है । आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार विषय और कषाय-भाव का निग्रह कर ध्यान और स्वाध्याय के द्वारा आत्मा की भावना करना तप है । उमास्वामी ने पूज्यपाद और अकलंक ने बाह्य और आभ्यन्तर तपों का जिक्र करते हुए लिखा है कि कर्मक्षय के लिए जो तपा जाता है उसे तप कहते हैं। कुमार कार्तिकेय ने समभावपूर्वक जो काय क्लेश किया जाता है, उसे तप कहा है। अभयदेवसूरि और सिद्धसेनसूरि के मत में जिससे रक्त, मांस आदि तपता है, वह तप है। तप में चेतना का तपाव होता है। उसमें ध्यान, ध्याता और ध्येय तीनों मिल जाते हैं। उनका यह मिलन बिना अग्नि परीक्षा के नहीं होता है। रत्नत्रय का पालन भी तप ही है या यों कहिए कि मुक्ति प्राप्ति के लिए रत्नत्रय के साथ-साथ तप भी करना पड़ता है। स्वर्ण की परख तापन से ही हो पाती है। बिना अग्नि में डाले उसकी विशुद्धता नहीं जानी जाती। अपने को अग्नि में डालकर ही सोना सौ चट होकर सामने आता है और आभूषण बनकर अपने को प्रस्तुत करता है। दूध को तपाकर मलाई बनायी जाती है। इसी तरह तप को धौंकनी की भी उपमा दी गई है। जीवन रूपी लौह तत्त्व को तप रूपी धौंकनी से धौंककर तपाया जाता है, तब कहीं वह स्वर्ण बन पाता है। इसलिए साधना के क्षेत्र में तप के महत्त्व को सभी ने स्वीकारा है । तप एक ऊर्जा है तप करने के पीछे दो प्रकार की मानसिकता होती है— एक तो पूर्वोपार्जित कर्मों की निर्जरा करना और दूसरी शरीर को कष्ट देकर सुख की आकांक्षा करना । आकांक्षा के साथ तप का कोई सम्बन्ध नहीं है। दुःख तो कोई भी प्राणी नहीं चाहता पर सुख Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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