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मन के साथ जिन्दगी दौड़ा करती है। दौड़ती जिन्दगी में घटनायें होती हैं, बुराइयाँ होती हैं इसलिये बुराइयों के बिना कोई कथा या चलचित्र नहीं रहता। कथा या चलचित्र द्वन्द्व में घूमता है। द्वन्द्व बिना कथा में कोई जान नहीं रहती। रावण के बिना राम के जीवन का भी कोई अस्तित्व नहीं रह जाता।
संयम का निषेधात्मक पक्ष ही हमारी दृष्टि में अधिक आता है, इसलिए हम संयम को उसी से जोड़ता हुआ पाते हैं। संवर और निर्जरा, दोनों का रूप संयम है। संवर का काम है- रोकना और निर्जरा का काम है- उस रोकने से विधेयात्मकता को पैदा करना। संवर में मन को रोका जाता है अपथ्य पर तनावपूर्वक नहीं। यदि तनाव रहेगा तो टूटन होगी, अपने से लड़ना होगा। जहाँ टूटन और लड़ना होगा वहाँ संयम नहीं हो सकता। जीभ को काट देने से आहार के रस से निवृत्ति नहीं होगी, बल्कि निवृत्ति होगी तब जब हमारी वृत्ति अन्तर की ओर मुड़ जायेगी। बहिरात्मा से अन्तरात्मा की ओर जाना ही संयम है। बाह्य इन्द्रियाँ स्थूल पदार्थ से जुड़ती हैं और अन्तर इन्द्रियां आत्मा से जुड़ती हैं, जिसे हम अतीन्द्रिय शक्ति कहते हैं। अतीन्द्रिय शक्ति को जाग्रत करना ही संयम की विधायक दृष्टि है। ऋद्धियाँ, सिद्धियाँ इसी अतीन्द्रिय शक्ति की देन हैं।
इस अतीन्द्रिय शक्ति को पाने के लिए मन को अनुशासित करना नितान्त आवश्यक है और मन को अनुशासित करने के लिए इच्छा, आहार, इन्द्रिय, शरीर, वचन आदि को अनुशासित किया जाता है। इन सभी वृत्तियों का पारस्परिक सम्बन्ध है, एक-दूसरे से वे जुड़ी हुई हैं।
इच्छा प्राणी का लक्षण है। मन की चञ्चलता हमारी इच्छा पर ही निर्भर करती है। इच्छा से ही प्रमाद और कषाय का जन्म होता है। सारी इच्छायें हमारी नाभि के
आसपास जाग्रत होती हैं। यही अविरति का केन्द्र है, चतुर्थ गुणस्थान है। यह चेतना जब नाभि से नासाग्र तक भ्रमण करती है, तब उसे प्राणपुरुष कहा जाता है और जब वह भृकुटि से ऊपर विचरण करती है तो उसे प्रज्ञापुरुष मान लिया जाता है। निम्न केन्द्र पर चेतना की सक्रियता निम्न वृत्तियों को जन्म देंगी और जैसे-जैसे वे ऊपर के केन्द्रों में जायेंगी, हमारी वृत्तियाँ शुभ से शुभतर की ओर बढ़ती जायेंगी, इसी को हम अन्तर्मुखी वृत्ति कह सकते हैं। केन्द्रों को नियन्त्रित करना इसी अन्तर्मुखी वृत्ति से सम्भव होता है। ___ शरीर क्षणभंगुर और अनित्य है, अपवित्र है पर हमारी बाह्य इन्द्रियों की कार्यशीलता उसी पर निर्भर करती है। उनकी अपनी सीमा है, इच्छा है, व्यवस्था है जिसे वे पार नहीं कर सकतीं। जब तक उनकी सक्रियता रहेगी, अन्तर इन्द्रियों की आवाज सुनाई नहीं देगी। अन्तर की इस आवाज को सुनने के लिए कायोत्सर्ग, आसन,
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