Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 84
________________ ७२ प्रतिपत्ति होने के लिए आस्था का निर्माण अत्यावश्यक हो जाता है। मृदुता लाने के लिए साधक में इसी आस्था, पुरुषार्थ और आत्मनिरीक्षण की जरूरत होती है। मार्दव का अर्थ मार्दव-धर्म का विरोधी भाव मान है। आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार कुल, रूप, जाति, बुद्धि, तप, श्रुत और शील में से किसी पर भी अभिमान नहीं करना मार्दव धर्म है --- कुल-रूव-जादि-बुद्धिस्क, तव-सुद-सीलेसु गारवं किंचि। जो ण वि कुक्खदि समणो महवधम्मो हवे तस्स।। (बा०अ०७२) आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्डक श्रावकाचार (१.२५) में ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और वपु इन आठ मदों से विरहित को मार्दव माना है। उमास्वामी ने कुल, रूप, जाति और श्रुत के बाद ऐश्वर्य, विज्ञान, लाभ और वीर्य को गिनाकर दूसरों की निन्दा और अपनी प्रशंसा को निग्रह करने को मार्दव धर्म माना है। चारित्रसार (पृ० २८) में भी लगभग यही बात कही गयी है। अकलंक ने इसमें यह और जोड़ दिया कि दूसरे के द्वारा परिभव के निमित्त उपस्थित किये जाने पर भी अभिमान का अभाव होना मार्दव-धर्म है (त०वा०, ९.६)। आवश्यकचूर्णि, दशवैकालिकचूर्णि (पृ० १८), कार्तिकेयानुप्रेक्षा (३९५) आदि ग्रन्थों में भी मार्दव धर्म का वर्णन लगभग इसी प्रकार मिलता है। स्थानाङ्ग में आये लाघव धर्म (१०.१६) को किसी सीमा तक मार्दव में सम्मिलित किया जा सकता है। यद्यपि लाघव का अर्थ उपकरण की अल्पता है पर वहाँ ऋद्धि, रस और सात (सुख) इन तीन गौरवों का जो त्याग बताया गया है (प्रवचनसारोद्धार, वृत्ति पत्र १३५) वह त्याग मार्दव की सीमा में आ जाता है। गौरव का अर्थ यहाँ अभिमान है। आत्मा का स्वभाव मार्दव-धर्म आत्मा का स्वभाव है और उसका विरोधी भाव मान उसका विभाव है। मान-सम्मान की आकांक्षा के पीछे अहङ्कार का भाव रहता है। वह न मिलने पर अहङ्कारी दुःख और अपमान का अनुभव करता है और दूसरे का अपमान कर उसका बदला लेता है। उसके अहङ्कार की तृप्ति समाज में पहुंचकर होती है। वह समाज नैतिक होगा या धार्मिक होगा; पर उसकी नैतिकता और धार्मिकता के पीछे अहङ्कारी का अहङ्कार तृप्त हुए बिना नहीं रहेगा। समाज धार्मिक कम होता है, नैतिक अधिक होता है। नीति का लबादा ओढ़े वह कर्तव्य की बात करता है। व्यक्ति माता-पिता की सेवा तो नहीं करना चाहता पर Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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