Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
View full book text
________________
७०
सन्दर्भ
कोहुप्पत्तिस्स पुणो बहिरंगं जदि हवेदि सक्खादे। ण कुणादि किंचिवि कोहं तस्स खमा होदि धम्मो ति।। - बा०अनु० ७१. भा० पा० १०७; का० अनु० ३९४; चा० सा०, पृ० ५९. शरीरस्थितिहेतुमार्गणार्थं परकुलान्युपगच्छतो भिक्षोर्दुष्टजनाक्रोशप्रहसनावज्ञाताडनशरीरव्यापादनादीनां संनिधाने कालुष्यानुत्पत्ति क्षमा । स०सि० ९.६, पृ० ४५२; रा०वा० ९.६.२, पृ० ५९५; चा० सा०, पृ० ५९. मित्ती मे सव्वभूयेसु वेरं मज्झं न केणइ नाशाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे न तर्कवादे न च तत्त्ववादे। स्वपक्षसेवाश्रयणे न मुक्तिः कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव।। क्षमा क्रोधनिग्रहः - आ०हरि०वृ० ४, पृ० ६६०. क्षमागुणांश्चानायासादीननुस्मृत्य क्षमितव्यमेवेति क्षमाधर्म: - त०भा० ९.६. पृ० १९१. क्रोधोत्पत्तिनिमित्तविषह्याक्रोशादिसंभवे कालुष्योपरमः क्षमा- तत्त्वार्थवार्तिक, ९.६.२. तत्थ खमा आकुट्ठस्स वा तालियस्स वा अहियासेतस्स कम्मक्खओ भवइ, अणहियासिंतस्स कम्मबंधो भवइ, तम्हा कोहस्स निग्गहो कायव्वो, उदयपत्तस्स व विफलीकरणं, एस खमन्ति वा तितिक्खत्ति वा कोहनिग्गर्हत्ति वा एगट्ठादशवैकालिकचूर्णि, पृ० १८. क्रोधस्यानुत्पाद उत्पन्नस्य वा विफलीकरणं- योगशास्त्र स्वो० विव० ३.१६.
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150