Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
View full book text
________________
उत्पत्ति होती है। उनके न होने से आत्मा में स्व-पर हितकारी प्रवृत्ति जन्म लेती है। उसी को शौच कहा जाता है। अभयदेव सूरि ने शौच का सीधा सम्बन्ध पर-द्रव्य अपहरण की वृत्ति को दूर करने से जोड़ा है। इन सभी परिभाषाओं से अच्छी परिभाषा की है कुमारस्वामी ने। उन्होंने कहा है - जो समभाव और सन्तोषरूपी जल से तृष्णा और लोभरूपी मल के समूह को धोता है तथा भोजन की गृद्धि नहीं करता, उसके निर्मल शौच धर्म होता है। अन्य आचार्यों द्वारा दी गई परिभाषाओं में शौच धर्म की ये सारी . परिभाषायें लगभग एक जैसी हैं। इनका आधार है आचाराङ्ग, जहाँ कहा गया है कि भगवान् महावीर “सोयप्पहाणा' थे, शौच में प्रधान थे (६.१०२)। शुचिता का विस्तार
शुचिता का गहरा सम्बन्ध है आध्यात्मिकता और नैतिकता से। आध्यात्मिक शुचिता व्यक्तिगत होती है और नैतिक शुचिता का सम्बन्ध समाज से रहता है। इन दोनों शुचिताओं में उत्तम शौच धर्म के साथ आध्यात्मिक शुचिता का सम्बन्ध अधिक रहता है। इस शुचिता को पाने में कतिपय लोग कभी परिस्थिति का बहाना कर स्वयं को पीछे हटा लेते हैं और कभी स्वभाव की आड़ लेकर उस ओर जाने से कतरा जाते हैं। पर अब तो स्वभाव भी बदला जा सकता है। आधुनिक विज्ञान में कुछ ऐसे प्रयोग हुए हैं जहाँ इलेक्ट्राड लगाकर वासना और भूख को शान्त कर दिया जाता है। बिजली के झटके लगने से बिल्ली और बन्दर की भूख मिट गई और चूहा-बिल्ली एक साथ खेलने लगे। इस तरह का प्रभाव हमारे महापुरुषों के प्रभाव से भी होता आया है। वीतरागी व्यक्ति की विद्युत में से ऐसी रश्मियाँ निकलती हैं, जिनसे अशुभ वातावरण शुभ में बदल जाता है और दुर्भिक्ष की जगह सुभिक्ष हो जाता है। चन्दन के व्यापारी मित्र को देखकर उसके मन में भरे दुर्भाव के कारण राजा को घृणा हो जाती है और फिर प्रसन्नता का भाव आ जाता है।
जीवन में इस प्रकार के अनेक प्रसङ्ग आते रहते हैं पर हम न उनका मूल्याङ्कन कर पाते हैं और न कर्तव्य-बोध जाग्रत हो पाता है। अर्जन के साथ विसर्जन वाला सिद्धान्त भी भूल जाते हैं। कहानी वैसी ही दुहराई जाती है जैसे तालाब को दूध से भरने का आदेश दिया गया और वह भरा मिला पानी से। सच तो यह है कि जीवन एक महाग्रन्थ है, महासागर है, शान्त भी है, अशान्त भी है। उसे समझना बड़ा कठिन है। शुचिता आये बिना उसे समझा नहीं जा सकता। विरोधी भाव लोभ
शुचिता न आने का कारण है - मूर्छा, लोभ, परिग्रह, आसक्ति। तरतमता के आधार पर उसके चार भेद किये गये हैं - कृमिराग, कज्जल, कीचड़ और हलदी। आकांक्षायें इनकी पृष्ठभूमि में रहती हैं। आशायें इनके साथ चलती हैं। शुचिता का
___Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150