Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 101
________________ सत्य सीधा होता है। उसे याद रखने की जरूरत नहीं होती। पर असत्य टेढ़ा होता है, शृङ्खलाबद्ध होता है। एक झूठ को छिपाने के लिए दस झूठ बोलना पड़ता है। इसलिए उन्हें याद रखना भी कभी-कभी कठिन हो जाता है। यह तथ्य तब समझ में आता है जब हमारा चित्त जागरूक हो जाता है। राजा को फकीर ने दर्पण भेंट किया ताकि वह जागरुक होकर स्वयं को देख सके। बुद्ध ने जागरूक होकर ही शव को और जराग्रस्त व्यक्ति को देखा। संवेग और वैराग्य बिना जागरूक हुए आ ही नहीं सकता। सम्राट् जब अकेले में कमरे में नग्न होकर स्वयं को परखता है तो उसे जीवन की सत्यता समझ में आती है। हर व्यक्ति बदलना चाहता है, पर वह जिज्ञासा और जागरूकता से दूर रहता है। बदलने का एकमात्र तरीका है – देखना। आत्मा के द्वारा आत्मा को देखना। आत्मा ही ध्याता और ध्येय है। अखण्ड आत्मा को उसकी पर्यायों के साथ देखना और सोचना कि वे पर्यायें क्षणभंगुर हैं, पर इनमें व्यावहारिक सत्यता है। द्रव्य, कषाय, योग, उपयोग, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य की दृष्टि से आत्मा का विश्लेषण किया जाता है और फिर बाहरी चित्त से शुद्ध चैतन्य तक पहुँचा जाता है। चित्त को साधन बनाकर शरीर से चिन्तन करना प्रारम्भ करें। फिर क्रमश: चित्त की चञ्चलता, योग, कषाय, वीर्य पर विचार करें। इससे जाग्रत अवस्था का जन्म होगा, संकल्प बनेगा और रूपान्तरण प्रारम्भ हो जायेगा। इस रूपान्तरण में संकल्प का होना आवश्यक है। मनोबल नहीं होगा तो सत्य अज्ञेय ही बना रहेगा। स्वास्थ्य को ठीक करना हो तो दर्द भरी जगह को विजातीय तत्त्वों से मुक्त कर दीजिए। यही सबसे बड़ी दवा है। इसी तरह संसरण से मुक्त होने के लिए भी आन्तरिक जागरण एक अचूक दवा है। सत्य के सामने सबसे बड़ी बीमारी है- सत्य को झुठलाने की प्रवृत्ति, सापेक्षता से दूर रहने की प्रवृत्ति। सारा संसार सापेक्षता से चलता है। माता, पिता किसी के लड़का, लड़की भी रहे हैं। अस्तित्व के साथ अनस्तित्व भी जुड़ा हुआ है, द्रव्य के साथ पर्यायें भी रहती हैं। इसी को अनेकान्तवाद कहते हैं। अनेकान्तवाद और स्याद्वाद के आधार पर वस्तुतत्त्व का विश्लेषण करने से व्यक्ति सत्य के यथार्थ स्वरूप को समझ सकता है। चिन्तन की सार्थकता सत्य की यथार्थता को समझने के लिए बारह भावनाओं का भी चिन्तन सहयोगी होता है। इनमें तीन भावनाओं, अनुप्रेक्षाओं पर विशेष चिन्तन करना चाहिए- अनित्य, अन्यत्व और एकत्व। सभी पदार्थ क्षणभंगुर हैं, अनित्य हैं, देह और आत्मा भिन्न-भिन्न है तथा सुख-दुःख कोई बाँटनेवाला नहीं है। इन तीन भावनाओं के आने से शेष भावनायें साथ चलने लगती हैं। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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