Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 107
________________ ९५ ज्ञानी होने के दो ही रास्ते हैं - किताबी ज्ञान हासिल करना और अनुभूति के माध्यम से अन्तर्ज्ञान प्राप्त करना। किताबी ज्ञान हौज जैसा होता है, जो बंधा रहता है, सीमित रहता है और अभिमान से भरा रहता है। मैला होने और सड़ने की भी सम्भावना उसमें बनी रहती है। पर अन्तर्ज्ञान कुआँ जैसा होता है जो निरभिमानी रहता है, सड़ता नहीं, निर्बन्ध रहता है, गहरा रहता है। अन्तर्ज्ञानी निर्विचारी बन जाता है। शिष्य और संन्यासी के झोलों में सोने की ईटें हैं। शिष्य उन्हें कुएं में फेंककर निर्भय बन जाता है, पर संन्यासी गुरु उनका भार ढ़ोते-ढोते भय के भूत से परेशान बना रहता है। स्वानुभूति न होने का यह फल है। किताबी ज्ञान एक उधार पत्थर के अलावा और क्या हो सकता है, यदि उसमें स्वानुभूति का गीलापन न हो। वह तो मात्र इन्द्रियज्ञान है जो खण्ड-खण्ड का ज्ञान कराता है। तीन चेतनायें मानी जाती हैं - इन्द्रिय चेतना, मनश्चेतना और बौद्धिक चेतना। इन तीनों चेतनाओं से निकलकर ज्ञान जब अनुभव चेतना तक पहुँचता है, तभी आत्मरमण हो पाता है और उसे ही संयम कहा जाता है। संयम से ही समाधि मिलती है और ध्यान, ध्याता और ध्येय इकट्ठे हो जाते हैं। इन्द्रिय विषय-वासना से हटकर संयम से ही भीतर जागरण हो जाता है। सारा संसार इन्द्रिय विषयी राग-द्वेष में जल रहा है और जलते हुए भी प्रसन्न हो रहा है। उसे जलने की तनिक भी चिन्ता नहीं है। वह तो खुजली को खुजाने में ही आनन्द का अनुभव कर रहा है, भले ही खन की धारा बहने लगे। यदि वह सामायिक-समता का चिन्तन करने लगे तो वैराग्य होने में, एकाग्र होने में देर नहीं लगेगी और चित्त भी प्रसन्न हो जायेगा। चित्त और विचारों पर नियन्त्रण रखने के लिए संयम एक सशक्त साधन है। अन्यथा वही बात होगी कि शराबी रातभर नौका चलाता रहा, पर नौका वहीं की वहीं बंधी रही, क्योंकि उसे निर्बन्ध नहीं किया था, खूटे से बन्धनमुक्त नहीं किया था। आंख आक्रामक होती है, इसलिए आंख लग जाती है। कान ग्राहक होता है, वह बहु-आयामी होता है। इसीलिए श्रवण पर बहुत जोर दिया गया है। सही श्रावक भी वही कहलाता है जो सम्यक् श्रवण करे। सम्यक् इसलिए कि शब्द और रूप सर्वाधिक प्रभावित करते हैं। ध्यानस्थ मुनि ने सुना कि श्रेणिक ने उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया। मुनि ध्यानस्थ होने पर भी विचलित हो गये। इसलिए संयम पालन के लिए स्वाध्याय की बहुत जरूरत होती है। वह उफनते दूध में पानी का काम करता है। स्वाध्याय से ही स्वानुभूति का जागरण होता है। संयम और अनुशासन संयम एक प्रकार का अनुशासन है, जो क्रूरता, विषमता और स्वभाव जटिलता Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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