Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 40
________________ महावीर : पूर्वभव की अक्षुण्ण परम्परा का परिणाम जैन संस्कृति कर्मप्रधान संस्कृति है। उसमें आत्मा को स्वभावत: अनादि, अविनश्वर और विशुद्ध मानकर उसे मिथ्यात्व और मोह के कारण संसारबद्ध बताया गया है। आत्मा अनन्त शक्ति का स्रोत है। संसारावस्था में यह शक्ति अविकसित और अप्रकट रहती है। शनैः-शनै: भेद-विज्ञान होने पर वह अपनी मूल अवस्था में आ जाता है। इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए उसे अगणित जन्म-जन्मान्तर भी ग्रहण करने पड़ते हैं। महावीर के इन जन्म-जन्मान्तरों अथवा पूर्वभवों का वर्णन कल्पसत्र, उत्तरपुराण,समवायांग, आवश्यकनियुक्ति, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, महावीरचरित्र आदि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं के ग्रन्थों में मिलता है। इन ग्रन्थों में महावीर के जीव के पूर्वभव-सम्बन्ध का प्रारम्भ ऋषभदेव के पुत्र भरत और भरत की महिषी अनन्तमति के पुत्र मरीचि से किया गया है। दिगम्बर परम्परा में महावीर के ऐसे तैतीस प्रमुख पूर्वभवों का वर्णन है पर श्वेताम्बर परम्परा उनकी संख्या सत्ताईस निर्धारित करती है। ये दोनों परम्पराएँ इस प्रकार हैंदिगम्बर परम्परा श्वेताम्बर परम्परा १. पुरूरवा भील १. नयसार ग्रामचिन्तक २. सौधर्मदेव २. सौधर्मदेव ३. मरीचि ३. मरीचि ४. ब्रह्मस्वर्ग का देव ४. ब्रह्मस्वर्ग का देव ५. जटिल ब्राह्मण ५. कौशिक ब्राह्मण ६. सौधर्म स्वर्ग का देव ६. पुष्यमित्र ब्राह्मण ७. पुष्यमित्र ब्राह्मण ७. सौधर्मदेव ८. सौधर्म स्वर्ग का देव ८. अग्निद्योत ९. अग्निसह ब्राह्मण ९. द्वितीय कल्प का देव १०. सनत्कुमार स्वर्ग का देव १०. अग्निभूति ब्राह्मण ११. अग्निमित्र ब्राह्मण ११. सनत्कुमार देव १२. माहेन्द्र स्वर्ग का देव १२. भारद्वाज १३. भारद्वाज ब्राह्मण १३. माहेन्द्र कल्प का देव Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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