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क्षमा की उपमा पृथ्वी से दी जाती है। पृथ्वी को आप खोदिये, रौंदिये, वह उफ तक नहीं करती। इतने पर भी वह कुछ न कुछ देती ही रहती है। इसलिए उसे 'सर्वरसा' भी कहा जाता है। क्रोध : कारण और प्रतिफल
क्षमा आत्मा का स्वभाव है। क्रोध उसका विभाव है। क्रोध अविचारपूर्वक स्व और पर को दुःख देने वाली एक प्रवृत्ति है। मोहनीय-कर्म के उदय से यह द्वेषरूप क्रूरता भरा परिणाम उत्पन्न होता है। चूँकि क्रोधादि विभाव आत्मा का विघात करते हैं इसलिए उन्हें 'कषाय' की संज्ञा दी जाती है। इस क्रोध को अग्नि के समान कहा गया है, जिसमें सब कुछ भस्म हो जाता है। पित्त-प्रधान व्यक्ति में क्रोध की मात्रा सर्वाधिक देखी गई है।
क्रोध से ही वैर, आक्रमण, प्रत्याक्रमण होते हैं। इसका स्थायित्व अधिक होता है। आचार्यों ने स्थायित्व की दृष्टि से क्रोध की चार श्रेणियाँ मानी हैं - पत्थर की रेखा के समान, भूमि पर खींची रेखा के समान, बालू पर खींची रेखा के समान और जल पर खींची रेखा के समान। ये रेखायें जिस प्रकार क्रमश: कमजोर होती चली जाती है, उसी प्रकार क्रोध की श्रेणियाँ भी स्थायित्व की दृष्टि से क्रमश: हीन होती जाती हैं। इनकी परिणति क्रमशः नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगति में होती है। इसके अनुसार नारकियों में क्रोध सर्वाधिक होता है।
व्यक्ति में क्षमा सम्यग्दर्शन के पालन करने से आती है और वैभाविक क्रोध का जन्म मिथ्या दर्शन से होता है। मिथ्या-दर्शन के कारण ही व्यक्ति कर्तृत्वबुद्धि से पर पदार्थों में राग करता है, आसक्ति करता है फलत: उनके संरक्षण करने में क्रोध की स्वभावत: उत्पत्ति हो जाती है। वही क्रोध जन्म-जन्मान्तरों तक दुःख का कारण बन जाता है।
उत्तम क्षमावान् होने की स्थिति तक पहुँचना बहुत बड़ी कठिन साधना का काम है। चित्त की विशुद्ध अवस्था उसके लिए अत्यावश्यक है। पञ्चम गुणस्थानवर्ती अणुव्रती से लेकर नौवें-दशवें गुणस्थानवर्ती महाव्रती को उत्तम क्षमा होती है। पर नौवें ग्रैवेयक तक पहुँचने वाले मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिङ्गी को उत्तम क्षमा नहीं होती।
उत्तम क्षमावान् होने के लिए क्रोध पर विजय प्राप्त करना नितान्त आवश्यक है। इसलिए क्रोध की उत्पत्ति के कारण, उसका निदान और उसके उदाहरणों की ओर दृष्टिपात करना जरूरी हो जाता है।
क्रोध की उत्पत्ति अहङ्कार और तृष्णा से होती है। इन दोनों के होने पर दूसरे का अपमान किया जाता है और दूसरे का अपमान करने के लिए व्यक्ति को पहले स्वयं
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