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इसलिए लोकभाषा संस्कृत न होकर प्राकृत थी। प्राकृत ही सर्वसाधारण व्यक्ति की अभिव्यक्ति का साधन था । यही कारण था कि सभी श्रोतागण उनके उपदेश को भली-भाँति समझ लिया करते थे। यह प्रथम अवसर था जबकि किसी ने लोकभाषा को इतना महत्त्व दिया। इस लोकभाषा का क्षेत्र उत्तर में वैशाली से लेकर दक्षिण में राजगृह और मगध के दक्षिणी किनारे तक तथा पूर्व में राढभूमि से लेकर पश्चिम में मगध की सीमा तक फैला था ।
गणधर
भगवान् महावीर का व्यक्तित्व बहुत अधिक लोकप्रिय हो चुका था। वे विद्वानों और मनीषियों में अप्रतिम थे। उनके उपदेश सर्वसाधारण के भी अन्तः स्तल तक पहुँचने लगे थे। इसलिए वे जनसमुदाय के आकर्षण के केन्द्रबिन्दु बन गये थे । इस स्थिति में यह आवश्यक था कि भगवान् महावीर अपने धर्म प्रचार के लिए कतिपय विशिष्ट विद्वानों को शिष्य बनायें जो उनके सिद्धान्तों को समुचित रूप से समझकर जनसाधारण के समक्ष प्रस्तुत कर सकें। इन्हीं शिष्यों को शास्त्रीय परिभाषा में गणधर कहा गया है।
महावीर स्वामी के इस प्रकार के ग्यारह गणधर बताये गये हैं- इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, व्यक्त, सुधर्मा, मण्डित, मौर्यपुत्र, अकम्पित, अचलभ्राता, तार्य और प्रभास। ये सभी विद्वान् महावीर के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनके पास आए और अपने प्रश्नों का समाधान पाकर उनके परम शिष्य बन गये ।
१. इन्द्रभूति गौतम
मगधवर्ती गौर्वर ग्राम में वसुभूति नामक एक ब्राह्मण विद्वान् रहता था। उसके तीन पुत्र थे— इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति । ये तीनों पुत्र भी वैदिक साहित्य और क्रियाकाण्ड के कुशल और प्रतिभाशाली पर अहंमन्य पण्डित थे। वे अपने समक्ष और किसी दूसरे की विद्वत्ता को स्वीकार नहीं करते थे। उस समय यज्ञ क्रियाकर्म अधिक लोकप्रिय था। मध्यमपावा में इन्द्रभूति अपने शिष्यों सहित आर्य सोमिल के विराट यज्ञ का आयोजन करा रहे थे । भगवान् महावीर भी जृम्भिकाग्राम से वहाँ पहुँचे और बाह्य उद्यान में ध्यानस्थ हो गए।
आश्चर्य की बात थी कि जन समुदाय याज्ञिक उत्सव की अपेक्षा महावीर के दर्शन करने में अधिक उत्साह दिखा रहा था। इससे स्पष्ट है कि उस समय तक क्रियाकाण्ड की जड़ें हिल चुकी थीं। समाज सही मार्गदर्शन पाने के लिए आतुर था।
इंद्रभूति के लिए भगवान् महावीर की लोकप्रियता ईर्ष्या का कारण बन गई। दिगम्बर परम्परा २७ के अनुसार इतने में ही एक वृद्ध विद्वान् व्यक्ति उससे निम्नलिखित श्लोक का अर्थ पूछने आया
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