________________
५१
पुण्य है, (२) केवल पाप है, (३) दोनों अपृथक् हैं, (४) दोनों पृथक् हैं तथा (५) स्वभाव ही सब कुछ है। महावीर ने उत्तर दिया कि पथ्याहारी के समान पुण्य की उत्कर्षता और अपकर्षता देखी जाती है। इसी प्रकार अपथ्याहार से दुःख देखा जाता है। अतः पुण्य-पाप दोनों हैं और वे संयुक्त हैं। परस्पर उत्कर्ष - अपकर्ष में उन्हें तदनुसार नाम दे देते हैं। दोनों पृथक् हैं और सुख, दुःख से उनका अस्तित्व माना जाता है। स्वभाव ही सब कुछ नहीं है।
३६
१०. मेतार्य
मेतार्य को सन्देह था कि परलोक अथवा पुनर्जन्म है या नहीं। महावीर ने इसका समाधान किया और कहा कि जातिस्मरण आदि के कारण यह सिद्ध है कि भूतों के व्यतिरिक्त आत्मा है। वह अमर है और एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर धारण करता है, यही पुनर्जन्म है।
११. प्रभास
प्रभास का मत था दीप के नाश की तरह जीव का निर्वाण जीव का नाश है। अथवा अनादि होने से आकाश की तरह जीव-कर्म का सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होगा । नरकादि पर्यायों के नष्ट हो जाने पर जीव का नाश हो जाता है। फिर मोक्ष कहाँ ? महावीर ने इसका उत्तर दिया कि नारकादि पर्यायों के नष्ट हो जाने पर जीव का नाश नहीं होता। जीवत्व कर्मकृत नहीं । कर्मनाश होने पर संसार का नाश अवश्य होता है। स्वभाव से विकार धर्म वाला न होने से जीव विनाशी सिद्ध नहीं होता। मुक्त हो जाने पर जीव और कर्म का सम्बन्ध विच्छिन्न हो जाता है। यहाँ भगवान् महावीर ने पदार्थ के स्वरूप का भी विश्लेषण किया कि वह उत्पाद, व्यय और धौव्यात्मक है । निश्चयनय धौव्यात्मक तत्त्व का प्रतीक है और व्यवहारनय उत्पाद - व्यय तत्त्वों का ।
इस प्रकार इन्द्रभूति गौतम और उसके दशों प्रधान विद्वान् साथी महावीर स्वामी की प्रकाण्ड विद्वत्ता और सर्वज्ञता के समक्ष सविनय नतमस्तक हुए और अपने चौदह हजार शिष्य परिवार सहित उनके शिष्यत्व को स्वीकार कर लिया। महावीर स्वामी के ये ग्यारह प्रधान शिष्य हुए जिन्हें जैन शास्त्रों में गणधर कहा गया है। इन ग्यारह गणधरों में प्रधान थे - इन्द्रभूति गौतम ।
दिगम्बर और श्वेताम्बर, दोनों परम्पराओं में गणधरों की संख्या में तो कोई मतभेद नहीं पर उनके नामों में मतभेद अवश्य है । इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, सुधर्मा, मौर्यपुत्र, अकम्पित और प्रभास तो दोनों परम्पराओं को मान्य हैं पर व्यक्त, मण्डित, अचलभ्राता और मेतार्य को दिगम्बर परम्परा स्वीकार नहीं करती। उनके स्थान पर वह मौन्द्रय, पुत्र, मैत्रेय और अन्धवेल का नाम प्रस्तावित करती है। यहाँ यह भी दृष्टव्य
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org