Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Author(s): Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 58
________________ ४६ हस्तामलकवत् जानने-देखने लगे । २५ यह उनके आत्मा की अनन्त शक्ति का प्रस्फुटन था। बौद्ध साहित्य में भी उनकी सर्वज्ञता के सन्दर्भ एकाधिक बार आये हैं । २६ वहाँ भी उन्हें गणी, गणाचार्य और तीर्थङ्कर कहकर स्मरण किया गया है। कालान्तर में उनको भगवान् कहकर भी सम्बोधित किया जाने लगा। इन सभी शब्दों के पीछे भगवान् महावीर के व्यक्तित्व की विशेषतायें छिपी हुई हैं जिन्हें हम अस्वीकार नहीं कर सकते । तीर्थङ्कर प्रकृति का यह परिणाम था । विद्वानों की खोज में केवलज्ञानी हो जाने पर सर्वज्ञ महावीर अर्हन्त बन गये। उन्होंने स्वयं के अनुभूतिमय जीवन-दर्शन को संसरण से संतृप्त जन साधारण तक पहुँचाने का लक्ष्य बनाया ताकि वह भी यथाशक्ति आध्यात्मिक साधना कर संसार के इस जन्म-मरण के दुश्चक्कर से दूर हो सके। इस दृष्टि से उन्होंने अपना धर्म प्रचार ( धम्मचक्कपवत्तन) करना प्रारम्भ कर दिया। प्रथम देशनाकाल में जनसमूह उनके सर्वविरति व्रत ग्रहण रूप गम्भीर उपदेश को ग्रहण नहीं कर सका। इसीलिए शायद उसे 'अभाविता परिषद्' कहा गया है । इसलिए भगवान् महावीर ने सर्वप्रथम अपनी बात कतिपय विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत करने का निर्णय किया। बुद्ध ने भी अपना प्रथम धर्मोपदेश पञ्चवर्गीय भिक्षुओं को दिया था। आचार्य जिनसेन के अनुसार पैंसठ दिनों तक महावीर की दिव्यवाणी प्रकट नहीं हुई। किसी ने सर्वविरति महाव्रत ग्रहण नहीं किया । किन्तु श्वेताम्बर परम्परा के सभी ग्रन्थों के अनुसार उन्होंने द्वितीय दिन पावा में धर्मोपदेश दिया और तीर्थ की स्थापना की। विद्वान् शिष्यों की खोज में महावीर जृम्भिका ग्राम से मध्यमपावा पहुँचे। वहाँ आर्य सोमिल ने विराट यज्ञ का समायोजन किया था जिसमें अनेक स्थानों से प्रकाण्ड पण्डित उपस्थित हुए थे। इस समय महावीर भी बहुजन परिचित हो चुके थे। पावा पहुँचते ही उनके भक्तों ने एक सुन्दर और सुव्यवस्थित विशाल मण्डप बनाया जिसे शास्त्रीय परिभाषा में देवरचित समवशरण कहा गया है। वहाँ बिना किसी भेद-भाव के सभी को समान रूप से बैठने का अवसर दिया गया। तात्कालिक सामाजिक विषम परिस्थिति में यह एक विशेष आकर्षक घटना थी। महावीर भगवान् ने वहाँ बैठकर अपना दिव्य उपदेश दिया। दिगम्बर परम्परा इस घटना को राजगृह (पञ्चशैलपुर) के विपुलाचल पर्वत पर घटित मानती है। प्राकृत : अभिव्यक्ति का माध्यम भगवान् महावीर के उपदेश की भाषा जन-साधारण की थी जिसे अर्धमागधी अथवा प्राकृत कहा गया है। संस्कृत तो अभिजात्य वर्ग की भाषा थी जो विशेष शिक्षित अथवा उच्च वर्गों और उच्च वर्णों तक सीमित थी। यह वर्ग संख्या में अल्पतर था । Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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